किसान आंदोलन : भाजपा की बांटो और राज करो नीति बेअसर, मीडिया की विश्वसनीयता खत्म


अब भाजपा किसान आंदोलन को हरियाणा और पंजाब के बीच बांटने की कोशिश कर रही है। हरियाणा में किसान आंदोलन के बढ़ते प्रभाव से हरियाणा सरकार और भाजपा संगठन ने सतलुज-यमुना लिंक नहर (एसवाईएल) का मुद्दा उठा दिया। लेकिन हरियाणा के किसानों ने भाजपा औऱ हरियाणा सरकार के प्रयास को विफल कर दिया है।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
देश Updated On :

किसान आंदोलन ने मुख्यधारा की राष्ट्रीय मीडिया की विश्वसनीयता को काफी नुकसान पहुंचाया है। नेशनल न्यूज चैनलों की विश्वसनीयता खासी गिरी है। किसान आंदोलन ने राष्ट्रीय टीवी चैनलों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया है। नेशनल टीवी न्यूज चैनलों का कवरेज किसान आंदोलन में एकतरफा रहा है, आंदोलन को बदनाम करने वाला रहा है। कई नेशनल न्यूज चैनलों ने किसान आंदोलन को बदनाम करने की पूरी कोशिश की है। वैसे अभी तक देश के विपक्षी दल न्यूज चैनलों पर सरकार की गोद में बैठने का आरोप लगाते रहे है।

लेकिन दिल्ली की सीमा पर बैठे किसानों ने विपक्षी दलों के आरोपों पर मुहर लगा दी है। ‘गोदी मीडिया’ शब्द धरना दे रहे हर किसान के जुबान पर है। ‘गोदी मीडिया वापस जाओ’, ‘गोदी मीडिया हाय-हाय’ के नारे प्रतिदिन धरना स्थल पर लगते है। हर दिन कोई न कोई वीडियो फेसबुक या व्हाटसएप पर वायरल होता है जिसमें किसी नेशनल न्यूज चैनल का रिपोर्टर औऱ कैमरामैन भीड़ से घिरा नजर आता है, लोगो का विरोध झेल रहा होता है। टीवी न्यूज चैनलों के पत्रकारों को किसान आंदोलन के कवरेज में अब काफी मुश्किल आ रही है।

जैसे ही कोई राष्ट्रीय टीवी चैनल का पत्रकार किसानों के बीच पहुंचता है, ‘गोदी मीडिया हाय-हाय’ के नारे लगने शुरू हो जाते है। यही नहीं कई जगह पत्रकारों से हाथा-पाई हो चुकी है। राष्ट्रीय टीवी चैनलों के पत्रकारों पर नजर रखने के लिए किसान संगठनों ने वॉलेंटियरों की डयूटी लगायी हुई है। किसानों का आरोप है कि कई टीवी न्यूज चैनल सरकार के इशारे पर जानबूझकर आंदोलन को बदनाम कर रहे है।

किसान आंदोलन की रूपरेखा रचने वालें किसान संगठनों को राष्ट्रीय टीवी चैनलों के रवैये पर पहले से ही शक था। यही कारण था कि आंदोलन के दौरान यू टयूब चैनलों को किसान आंदोलन में खूब महत्व दिया है। पंजाब और हरियाणा के सैकड़ों यू टयूब चैनलों ने किसान आंदोलन के दौरान धमाल मचा दिया है। कनाडा, न्यूजीलैंड और अमेरिका से संचालित कई पंजाबी न्यूज चैनल किसान आंदोलन के अंतराष्ट्रीय मंच पर ले जाने में सफल हो गए है। इसमें कई यू टयूब चैनल भी है।

किसान संगठनों के नेता हिंदी, पंजाबी के यू टयूब चैनलों को जमकर इंटरव्यू दे रहे है। यही नहीं राष्ट्रीय मीडिया के दुष्प्रचार का अच्छा जवाब यू टयूब चैनलों ने दिया है। किसान विरोधी रवैए को यू टयूब चैनल बेनकाब भी कर रहे। किसान आंदोलन को जब नेशनल न्यूज चैनलों ने खालिस्तानी या माओवादी बताने की कोशिश की तो यू टयूब चैनलों ने नेशनल न्यूज चैनलों के जवाब में अपने कार्यक्रम चलाए। यही नहीं नेशनल न्यूज चैनलों के किसान विरोधी रवैए को पूरी तरह से यू टयूब चैनलों ने बेनकाब कर दिया।

किसानों ने जहां भी राष्ट्रीय चैनलों के पत्रकारों को घेरकर कर उनके एजेंडे पर सवाल उथाया तो उसे यू टयूब चैनलों ने जमकर कवरेज दिया। यू टयूब चैनलों के इस तरह के कवरेज फेसबुक और व्हाट्सएप पर जमकर वायरल हो रहे है।

दरअसल किसान आंदोलन को कवर कर रहे पत्रकारों को किसानी के मुद्दों की समझ भी बहुत कमजोर है। क्योंकि इस समय चैनलों में चीखने और चिल्लाने वाले पत्रकारों की बहुतायत है। इन पत्रकारों को न तो एमआरपी (मैक्सिमम रिटेल प्राइज) की जानकारी है न ही एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइज) की जानकारी है। राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के पत्रकार अक्सर रिपोर्टिग के दौरान कहते है कि धरने में आए किसानों को बरगलाया गया है, किसानो को तीनों कृषि कानूनों की जानकारी तक नहीं है।

लेकिन सच्चाई इससे उल्टी होती है। सच्चाई तो यह है कि रिपोर्टिंग कर रहे न्यूज चैनलों के अधिकांश पत्रकारों को तीनों कृषि कानूनों की जानकारी तक नहीं है। लेकिन चैनल की नीतियों के मुताबिक कभी वे किसानों को खालिस्तानी कहते है, तो कभी माओवादी। सबसे पहले कुछ राष्ट्रीय न्यूज चैनलों ने किसान आंदोलन को खालिस्तानी घोषित कर दिया। जबकि किसान संगठनों में बहुतायत उन संगठनों की है जो मध्यमार्गी सोच रखते है, या वामपंथी सोच रखते है। जब चैनलों का खालिस्तानी दांव नहीं चला तो कुछ चैनलों ने आंदोलन में अरबन नक्सलों की घुसपैठ की बात कर दी। लेकिन चैनलों का यह दांव भी फेल हो गया।

किसानों के पहनावे औऱ खाने-पीने पर भी राष्ट्रीय टीवी चैनलों ने सवाल उठाए। टीवी चैनलों के इस दुष्प्रचार से यह पता चलता है कि चैनलो में बैठे नीति निर्धारकों को पंजाब के पहनावे और खान-पान तक की जानकारी नहीं है। राष्ट्रीय न्यूज चैनल पंजाब के किसानों को आज भी 1970 के दशक के फिल्मों के किसान समझते है जो फटी धोती और गंदा कुर्ता पहने अक्सर फिल्मों में नजर आता था। जो किसी तरह नमक और रोटी से अपना गुजारा करता था। दरअसल राष्ट्रीय मीडिया को पंजाब के गुरूद्वारों में लगायी गई अतिआधुनिक रोटी पकाने की मशीनों की भी जानकारी नहीं है जो मिनटों में हजारों रोटी तैयार करती है।

इस किसान आंदोलन की एक बड़ी विशेषता नेशनल न्यूज चैनल और कुछ नेशनल अखबार नहीं देख पाए है। यह भी हो सकता है कि नेशनल मीडिया जानकर भी अनजान हो। दरअसल पंजाब में शुरू हुआ यह किसान आंदोलन सिर्फ सिख किसानों का आंदोलन नहीं है। यह आंदोलन पंजाब के किसानी का आंदोलन है जिसपर हिंदू भी निर्भर करते है। इस आंदोलन में पंजाब के बड़े शहरों के हिंदू और कस्बाई हिंदू कंधे से कंधे मिलाकर सिख किसानों के साथ खड़े है। राज्य का व्यापारी तबका किसानों के साथ पूरी तरह से खड़ा है। इसका परिणाम भी सामने दिख रहा है।

18 और 19 दिसंबर को केंद्र सरकार के आयकर विभाग ने राज्य के बड़े आढ़तियों के कारोबार को निशाना बनाया। 7 आढ़तियों के कारोबार पर छापेमारी की गई है। आढ़तियों ने सीधा आरोप केंद्र सरकार पर लगाया है। उनका आरोप है कि सरकार उन्हें किसान आंदोलन से दूर रहने के लिए उन्हें धमका रही है। आढ़तियों को किसानों की मदद नहीं करने को केंद्र सरकार की एजेंसियां कह रही है।

दिलचस्प बात है कि इस छापेमारी पर राज्य के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी नाराजगी व्यक्त की है। दरअसल छापेमारी की जानकारी राज्य की पुलिस को भी आयकर विभाग ने नहीं दी। आयकर विभाग के अधिकारी छापेमारी के दौरान केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के दस्ते को ले गए। केंद्र सरकार का यह रवैया बताता है कि केंद्र सरकार आंदोलन से काफी घबराई हुई है।

दरअसल पहले पंजाब में आंदोलन को हिंदुओं और सिखों के बीच बांटने की कोशिश की गई। लेकिन यह प्रयास विफल हो गया। इसके बाद पंजाब भाजपा ने दलित और हिंदुओं का मसला उठाया। भाजपा ने राज्य में किसान आंदोलन को कमजोर करने के लिए कहा कि दलित या हिंदू मुख्यमंत्री अभी तक पंजाब में क्यों नहीं बन पाया? लेकिन भाजपा का यह मुद्दा बेअसर गया।

अब भाजपा किसान आंदोलन को हरियाणा और पंजाब के बीच बांटने की कोशिश कर रही है। दरअसल आंदोलन अब हरियाणा में भी फैल गया है। हरियाणा के किसान दिल्ली सीमा पर धरने पर बैठे पंजाब के किसानों को हर तरह की मदद कर रहे है। धरने में हरियाणा के किसानों की भागीदारी काफी बढ़ गई है। हरियाणा में किसान आंदोलन के बढ़ते प्रभाव से हरियाणा सरकार और भाजपा संगठन ने सतलुज-यमुना लिंक नहर (एसवाईएल) का मुद्दा उठा दिया।

सरकार और भाजपा को आशा थी कि एसवाईएल के मुद्दे पर हरियाणा और पंजाब के किसानों के बीच एकजुटता खत्म हो जाएगी। सतलज-यमुना लिंक नहर के माध्यम से पंजाब की नदियों का पानी हरियाणा में ले जाने की योजना पर दोनों राज्यों में लंबे समय से विवाद है। हरियाणा सरकार ने इस पुराने विवाद को किसान आंदोलन को कमजोर करने के लिए उठाया। लेकिन हरियाणा के किसानों ने भाजपा औऱ हरियाणा सरकार के प्रयास को विफल कर दिया है।

हरियाणा के फतेहाबाद में एसवाईएल को लेकर धरना दे रहे भाजपा नेताओं का हरियाणा के किसानों ने जोरदार विरोध किया। एसवाईएल को लेकर अब हरियाणा के किसानो का तर्क जोरदार है। उनका कहना है कि जब नए कृषि कानूनों के कारण किसानों की जमीन ही नहीं बचेगी एसवाईएल के पानी का हरियाणा के किसान क्या करेंगे?

 



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