द्विनाम पद्धति के अनुसार वायरसों का नया नामकरण


ज़िका वायरस को उसका नाम युगांडा में एक जंगल में खोजे जाने के फलस्वरूप मिला था। इस मामले में ऐसा माना जाता है कि यह नाम उस इलाके को बेवजह बदनाम करता है।


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बरसों से सजीवों (वनस्पति और जंतुओं) के नाम एक द्विनाम पद्धति के अंतर्गत रखे जाते हैं। जैसे इस पद्धति के तहत आलू को सोलेनम ट्यूबरोसम (Solanum tuberosum) और कुत्ते को कैनिस ल्यूपस फेमिलिएरिस (Canis lupus familiaris) कहा जाता है। इन नामों में पहला हिस्सा जीनस या वंश का होता है और दूसरा हिस्सा प्रजाति। वंश एक ज़्यादा बड़ा समूह होता है जिसमें मोटे तौर पर एक समान जीव रखे जाते हैं। इस वंश के अंदर ज़्यादा बारीक भेद वाले जीवों को प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। अर्थात सोलेनम एक जीनस या वंश है जिसमें लगभग 1500 प्रजातियां – जैसे टमाटर, बैंगन, धतूरा वगैरह शामिल हैं।

वायरस सजीव-निर्जीव के बीच कहीं स्थित हैं और अब तक वे इस पद्धति में शामिल नहीं किए गए थे। लेकिन अब इंटरनेशनल कमिटी ऑन टेक्सॉनॉमी ऑफ वायरसेस (आईसीटीवी) ने निर्णय लिया है कि वायरसों को भी द्विनाम पद्धति के अनुसार नाम दिए जाएंगे।

हालांकि अभी वैज्ञानिक वायरसों को कुल व वंश के स्तर तक वर्गीकृत करते हैं लेकिन प्रजाति स्तर के वर्गीकरण तक आते-आते बात बिखर जाती है। आम तौर पर वायरस प्रजातियों को नाम उनके द्वारा पैदा की गई किसी बीमारी के नाम पर, या उनके द्वारा संक्रमित किसी जीव प्रजाति के नाम पर या उन्हें पहली बार खोजे जाने के स्थान के नाम पर दिया जाता है।

जैसे सेवीयर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स) पैदा करने वाले वायरस को सार्स-सीओवी-2 कहा गया है। इसी प्रकार से ईस्टर्स एक्वाइन एंसिफेलाइटिस वायरस है जो घोड़ों को संक्रमित करता है। ज़िका वायरस को उसका नाम युगांडा में एक जंगल में खोजे जाने के फलस्वरूप मिला था। इस मामले में ऐसा माना जाता है कि यह नाम उस इलाके को बेवजह बदनाम करता है।

यह व्यवस्था तब तक तो ठीक-ठाक चली जब तक ज्ञात वायरसों की संख्या सैकड़ों या हज़ारों तक सीमित थी। लेकिन फिर जीनोम विश्लेषण की तकनीक के आगमन के साथ एक-एक अध्ययन में हज़ारों वायरसों की खोज होने लगी। इतनी बड़ी संख्या के चलते वैज्ञानिकों के बीच वार्तालाप को आसान बनाने के लिए एक मानक नामकरण व्यवस्था की ज़रूरत महसूस की जाने लगी।

तब आईसीटीवी ने 2016 में विचार-विमर्श शुरू किया। दरअसल आईसीटीवी इंटरनेशनल यूनियन ऑफ माइक्रोबायोलॉजिकल सोसायटीज़ का अंग है। अंतत: आईसीटीवी में इस बात पर सहमति बनी कि वायरसों को भी सामान्य द्विनाम पद्धति से नाम दिए जाएं।

बहरहाल, कई वायरस वैज्ञानिकों को लगता है कि सचमुच इसकी कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि वायरसों को नाम दिए गए हैं और ये काफी प्रचलन में आ चुके हैं। कई वैज्ञानिकों को तो लगता है कि ये ज़बान के लिए अत्यंत कठिन साबित होंगे।

एक उदाहरण के रूप में बताते हैं कि सार्स वायरस का नाम होगा बीटाकोरोनावायरस पेंडेमिकम (Betacoronavirus pandemicum) या एड्स वायरस यानी ह्यूमैन इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस को लेंटीवायरस ह्यूमिमडेफ1 (Lentivirus humimdef1) कहा जाएगा। जो लोग नई व्यवस्था का मखौल बनाना चाहते हैं उन्होंने ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं।

जैसे वेस्टनाइल वायरस को ऑर्थोफ्लेविवायरस नाइलेंस (Orthoflavivirus nilense) कहना या शार्क रिवर वायरस को ऑर्थोबन्यावायरस स्क्वेलोफ्लवी (Orthobunyavirus squalofluvii) कहना उनके अनुसार मूर्खतापूर्ण है। इस निर्णय के आलोचक कहते हैं कि पहले से प्रचलित नाम हमें वायरस को पहचानने में अधिक सहायक हैं।

दूसरी ओर, कई वैज्ञानिक मानते हैं कि इन नए नामों के आ जाने से वायरस वैज्ञानिकों को काम करने में आसानी होगी। जब भी किसी शोध पत्र में किसी वायरस का द्विनाम पद्धति का नाम आएगा तो दुनिया भर में पता चल जाएगा कि किस वायरस की बात हो रही है। और इस नई व्यवस्था के समर्थक शुरुआती अफरा-तफरी को एक ज़रूरी परेशानी भर मानते हैं।

फिलहाल, इस समस्या का एक मध्यमार्ग निकाला गया है। यह फैसला हुआ है कि सारे वायरस डैटाबेस में दोनों नामों का उपयोग किया जाएगा और सारी जानकारी दोनों नामों से खोजी जा सकेगी।