रघुवंश बाबू (डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह) चले गए। लेकिन उनकी रिपोर्ट रह गयी। वही रिपोर्ट जिसकी अनुशंसाओं को लागू करने की मांग लेकर वित्तरहित कॉलेजों के शिक्षक डेढ़ दशक तक आंदोलन पर रहे। बात शुरू होती है 1992 से। मार्च का महीना था। बिहार विधान मंडल का सत्र चल रहा था। और वित्तरहित शिक्षा नीति की समाप्ति की मांग लेकर सम्बद्ध डिग्री कॉलेजों के शिक्षकों का आंदोलन उफान पर था। राज्य भर के शिक्षक पटना में डेरा डालो-घेरा आंदोलन पर डटे थे।
27 मार्च को शिक्षक-शिक्षकेतर कर्मचारियों का बिहार विधान मंडल के समक्ष प्रदर्शन के लिए गांधी मैदान से जुलूस निकला तो राजधानी ठप पड़ गयी। तब रघुवंश बाबू बिहार विधान परिषद के सदस्य थे। शून्यकाल के दौरान वित्तरहित शिक्षा नीति की समाप्ति को लेकर उन्होंने सवाल उठाए। यह जानते हुए कि वे सत्ताधारी दल के सदस्य हैं। पर सवाल उठाने से सत्ता की दीवार उन्हें नहीं रोक पायी। उनके द्वारा पूछे गए सवाल के आधार पर वित्तरहित शिक्षा नीति की समाप्ति के लिए बिहार विधान परिषद के सभापति ने परिषद के सदस्यों की एक कमेटी बनाई। उसके अध्यक्ष रघुवंश बाबू बनाए गए। और परमानन्द सिंह मदन, शत्रुघ्न प्रसाद सिंह, शारदा प्रसाद सिंह, बैधनाथ पांडेय, जगबंधु अधिकारी एवं नीलाम्बर चौधरी सदस्य बनाए गए।
कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 31 दिसंबर, 1993 को सौंप दी। कमेटी ने वित्तरहित शिक्षा नीति की समाप्ति के साथ ही इसके लिए बजट में राशि का प्रावधान करने, कॉलेजों में शिक्षक-शिक्षकेतर कर्मचारियों के वर्चस्व वाली प्रबंध समिति बनाने, वित्तीय संकट की स्थिति में सुरक्षा कोष की राशि सूद के साथ कॉलेजों को लौटाने, आंतरिक संसाधन जुटा प्रबंध समिति द्वारा भुगतान की गारंटी और उसकी निगरानी की व्यवस्था करने, शिक्षक-कर्मियो की सेवा नियमित करने तथा सभी शर्तों को पूरा करने वाले कॉलेजों को परमानेंट एफलिएशन देने और चरणबद्ध रूप से अंगीभूत करने की अनुशंसा अपनी रिपोर्ट में की।
इससे शिक्षकों के आंदोलन पर रघुवंश-कमेटी की रिपोर्ट का रंग चढ़ गया। अब शिक्षकों की एक ही मांग थी कि रघुवंश-कमेटी की रिपोर्ट लागू करो। लेकिन न रिपोर्ट लागू हुई और न ही आंदोलन थमा। हां, एक बार फिर बिहार की सत्ता जरूर बदल गयी। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। नयी सरकार के सामने वित्तरहित शिक्षा नीति एक बड़ी चुनौती थी। और साल 2008 से वित्तरहित स्कूल-कॉलेजों को उसके छात्र-छात्राओं के रिजल्ट के आधार पर अनुदान देने की लागू हुई व्यवस्था से वित्तरहित शिक्षा नीति समाप्त हुई। बहरहाल, रघुवंश-कमेटी की रिपोर्ट आज भी प्रासंगिक है। और अपनी रिपोर्ट में जिंदा रहेंगे रघुवंश बाबू !
(लक्ष्मीकांत सजल की पोस्ट से सभार।)