“बीमारी” से नहीं “बीमार समाज” से स्वामी अग्निवेश किए कूच…


एक बीमार समाज जिसको स्वामी जी अपने युवावस्था में स्वस्थ करने का बीड़ा उठाया था वह उनके अंतिम समय में और बीमार हो चुका था। इस बीमार समाज ने कदम-कदम पर उनके राह में रोड़े अटकाए। मजबूत इरादे और वैज्ञानिक सोच के इस व्यक्ति के हौसले को जब वे तोड़ नहीं सके तो उनपर प्राणघातक हमला किया।


प्रदीप सिंह प्रदीप सिंह
देश Updated On :

स्वामी अग्निवेश अंतत: दुनिया से कूच कर गये। स्वामी जी लंबे समय से बीमार थे और कुछ दिनों पहले उन्हें दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलेरी साइंसेज (आईएलबीएस) में भर्ती कराया गया था। पिछले डेढ़ वर्षों से आईएलबीएस में भर्ती होने और फिर निकल कर ताज अपार्टमेंट या गुरुग्राम के बहलपा आश्रम जाने का सिलसिला चल रहा था, जो आज थम गया। डॉक्टरों के मुताबिक, शाम 6 बजकर 45  मिनट पर दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हुआ। लेकिन यह पूरा सच  नहीं है।

एक बीमार समाज जिसको स्वामी जी ने अपने युवावस्था में स्वस्थ करने का बीड़ा उठाया था और हर समय जिसके लिये संघर्ष करते रहे, वह आज और बीमार हो चुका है। इस बीमार समाज ने कदम-कदम पर उनके राह में रोड़े अटकाए। मजबूत इरादे और वैज्ञानिक सोच के इस व्यक्ति के हौसले को जब वे तोड़ नहीं सके तो उनपर प्राणघातक हमला किया। और स्वामी अग्निवेश बीमारी नहीं  बीमार समाज से कूच कर गये।

21 सितंबर, 1939 को छत्तीसगढ़ के शक्ति रियासत में एक तेलगु ब्राह्मण परिवार में एक बालक का जन्म हुआ। बच्चे का नाम वेपा श्याम राव रखा गया। यही बालक आगे चलकर देश-दुनिया में स्वामी अग्निवेश के नाम से मशहूर हुआ। लगभग चार साल की उम्र में पितृविहीन हुए अग्निवेश के परिवार को नाना जी के यहां आना पड़ा। उस समय वे लोग विशाखापट्नम में रहते थे। पिता का नाम वेपा लक्ष्मी नरसिंहम पंतलु था। पंतलु तेलगु भाषा में आदरसूचक शब्द और वेपा तेलगु ब्राह्मणों की उपाधि है। कुल मिलाकर पांच भाई-बहनों में वेपा श्याम राव बाद में (स्वामी अग्निवेश), चौथे नंबर पर थे। उनका पैतृक घर ब्रह्मपुर था। ब्रह्मपुर पहले आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिला का अंग था। प्रांत के बंटवारे के बाद अब यह ओडिशा के गंजाम जिले का हिस्सा बन चुका है। आज भी ब्रह्मपुर में तेलगुभाषी रहते हैं।

एक संपन्न, प्रगतिशील और धनाड्य परिवार में जन्में और कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज में शिक्षा और फिर वहीं अध्यापन करने वाले वेपा श्याम राव भारत की समस्या को अपने युवावस्था में ही पहचान लिया था। जन्मना जातिवाद, ऊंच-नीच और गरीब-अमीर के भेदभाव से ग्रस्त होकर बीमार हुये समाज को वे बुद्धिवाद, तर्कवाद, आधुनिकता-प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच से स्वस्थ्य करना चाहते थे।  आर्य समाज  और बंधुआ मुक्ति मोर्चा के माध्यम से  इसके लिये संघर्ष भी करते रहे। लेकिन किसी भी बीमार को हमेशा दवा कड़वी लगती है।

कांग्रेस का शासन हो या किसी दूसरे दल का, भारत का शासक वर्ग इस जातिवादी, सांप्रदायिक और पूंजीवादी बीमारी का उपचार करने की बजाय उसे नजरंदाज करने और पर्दे के पीछे उससे गठजोड़ करने की नीति पर चलता रहा है। लेकिन 2014 से देश में सत्तारूढ़ संघ-भाजपा की सरकार इस जातिवादी,सांप्रदायिक बीमारी का इलाज करने की बजाय उसे बढ़ाने में लगी है। जिसके परिणामस्वरूप स्वामी अग्निवेश जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति की शख्सियत पर प्राणघातक हमला किया गया। यह घटना एक बार नहीं दो-दो बार हुआ। आश्चर्य की बात यह है कि झारखंड और दिल्ली में दोनों जगहों पर हमला करने वाले संघ-भाजपा के कार्यकर्ता-नेता थे। लेकिन आज तक उनपर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

स्वामी जी के असमय निधन का प्रमुख कारण संघ-भाजपा राज्य में उनपर होने वाला प्रायोजित हमला है। पिछले दिनों जिस तरह से झारखंड और दिल्ली में दो-दो बार संघ-भाजपा के गुंडों ने उनपर प्राणघातक हमला किया उससे स्वामी अग्निवेश जी के स्वाभिमान और आत्मसम्मान को गहरी ठेस लगी । जीवन भर एक आदर्श एवं वैज्ञानिक विश्व का सपना देखने वाले शख्स के लिये यह असहनीय था।

स्वामी अग्निवेश के नाम से तो मैं लंबे समय से परिचित था लेकिन 2006 में दिल्ली आने के बाद अकसर उनसे मुलाकातें होती रहती थी। लेकिन 2018 में यथावत पत्रिका छोड़ने के बाद उनके साथ काम करने का मौका मिला और उनको नजदीक से जानने का भी। जून 2019 में एक दिन अचानक उनको फोन किया और उनके सहयोगी अशोक जी ने फोन रिसीव किया। थोड़ी देर में स्वामी जी का फोन आया और ताज अपार्टमेंट आने का हुक्म हुआ। बातचीत के क्रम में जब उन्हें मालुम हुआ कि मैं यथावत  छोड़ चुका हूं और इस समय बेरोजगार हूं तो न घबराने की बात कह कर आगे की योजना के बारे में पूछा।

फिलहाल ये लंबी कहानी है…. आगे मैं उस बीमारी की जिक्र करना चाहूंगा जिसकी चपेट में आने के बाद स्वामी जी फिर कभी उबर नहीं पाये। 17 जुलाई 2018 को झारखंड के पाकुड़ जिले में संघी फासिस्टों के हमले ने अग्निवेश के ह्रदय को छलनी कर दिया था, वह घाव भर ही रहा था कि 17 अगस्त 2018 को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद भाजपा मुख्यालय पर श्रद्धांजलि अर्पित करने जाते समय उन पर हमला किया गया। उक्त दोनों प्राणघातक हमलों ने उनके मनोविज्ञान को गहरे प्रभावित किया और वे गुमशुम रहने लगे।

इस दौरान हमारी मुलाकातों का क्रम बढ़ा और एक नहीं कई बार स्वामी जी ने मुझसे कहा, “ प्रदीप जी इन दोनों हमलों ने मुझे तोड़ कर रख दिया है, लगता है कि मैं बीमार हो गया हूं और अब ठीक नहीं होऊंगा।” एक दिन तो दो-तीन घंटे की मुलाकात में कई बार उपरोक्त कथन को दोहराया और मुझे झुंझलाहट जैसी हो गयी। मैंने कहा कि, “आपको कुछ नहीं हुआ है। दोनों घटनाओं को भूल जाइये।” स्वामी जी ने कहा कि, “कैसे भूल जाऊं, नहीं भूलता।”

स्वामी अग्निवेश के नाम से परिचय तो  किताबों और पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने से मिला। कानून और सामान्य ज्ञान की पुस्तकों को पढ़ने के दौरान बंधुआ मुक्ति मोर्चा और स्वामी अग्निवेश का नाम कई बार आंखों के सामने से गुजरा। पत्थर खदानों में मजदूरों के शोषण उत्पीड़न की जब भी कोई खबर आती तो स्वामी जी का नाम जरूर किसी न किसी संदर्भ में वहां मौजूद रहता। लेकिन मेरे मन-मष्तिष्क में एक सवाल सहज ही उठता। यह सवाल एक स्वामी का किसी आंदोलन से जुड़ने का था। कहां एक संन्यासी और कहां बंधुआ मजदूरों के हक की लड़ाई।

एक संन्यासी जो सांसारिक-पारिवारिक जीवन को त्याग कर मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई पत्थर खदानों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ रहा हो। साधुओं-संन्यासियों और मठाधीशों की एक परंपरागत छवि और व्यवहार के कारण मेरा मन-मष्तिष्क यह स्वीकार नहीं कर पाता था कि स्वामी अग्निवेश जैसा भगवा धारण करने वाला व्यक्ति सड़क से लेकर अदालत तक मजदूरों के लिए संघर्ष कर सकता है।

कई बार स्वामी जी से मिलने की इच्छा हुई लेकिन छात्र जीवन और उसकी सीमाओं के चलते मैं उनसे मिलने का कोई ठोस उपाय नहीं किया। छात्र जीवन में मां-बाप के सपनों की गठरी सिर पर लिए हुए मैं इलाहाबाद में सिर्फ योजनाएं बनाता रह गया।
मार्च 1997 की बात है। बिहार के सीवान जिले में जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर प्रसाद को अपराधी छवि के राजद सांसद शहाबुद्दीन ने दिन-दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी। चंद्रशेखर की शहादत के बाद समूचे उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों में छात्रों में आक्रोश व्याप्त था। इसी कड़ी में दिल्ली के सप्रू हाउस में एक कंवेंशन आयोजित किया गया था। हम लोग इलाहाबाद से चंद्रशेखर की श्रद्धांजलि कार्यक्रम में दिल्ली के सप्रू हाउस आए हुए थे। भाकपा-माले के साथ ही सारे लेफ्ट दलों के नेता इस कंवेंशन में शामिल थे। जिसमें विनोद मिश्र, दीपंकर भट्टाचार्य, गीता मुखर्जी, रविकिरण जैन, विभूति नारायण राय आदि का नाम याद आ रहा है। वक्ताओं में स्वामी अग्निवेश भी थे। यह उनसे पहली मुलाकात थी। उस श्रद्धांजलि समारोह में स्वामी अग्निवेश राजनीति-पूंजी-धर्म और अपराधियों के गठजोड़ का मुद्दा उठाया था।

फिलहाल, स्वामी जी इस समय सभी धर्मों के पाखंड, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता और पूंजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्ष की अलख जगा रहे थे। वे एक देश की नहीं “वसुधैव कुटुम्बकम” के पैरोकार थे। उनका जाना विश्व मानवता के लिये अपूर्णनीय क्षति है। ह्रदय की गहराइयों से उनको नमन!

(लेखक दैनिक भास्कर के एसोसिएट एडिटर हैं।)



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