रविवार की कविता : चारुकेशी! अच्छा लगता है जब तुम…


डॉ. शिवा श्रीवास्तव स्त्री मन की संवेदना एवं भावनाओं को शब्द देने के लिए जानी जाती हैं। शिवा अपनी कविताओं में स्त्री जीवन एवं उनके संघर्ष के साथ ही प्रकृति का मानवीकरण भी बखूबी करती हैं। लंबे समय से लेखन में सक्रिय शिवा श्रीवास्तव भोपाल में रहती हैं।



चारुकेशी
चारुकेशी!!! अच्छा लगता है,
जब तुम सारी सज धज से दूर
चुप सी! मगर खुश बैठी होती हो
मंद मंद मुस्कराती हो…
बादलों को निहार रही होती हो..

बिना सजे संवरे
तुम्हारे सुनहरे लंबे खुले
तितर बितर बाल
हवा में उड़ रहे होते हैं
तुम उनको कान के पीछे दबा देती हो
पर वो फिर भी बार बार आकर
चेहरे पर बिखर जाते हैं…

घुटने मोड़ कर तुम जब
घर के आंगन में बैठती हो
नीम के नीचे चबूतरे पर, सोच बुनती हो
जमीन पर अपनी उंगलियां
बे इरादा घुमाती हो
ऊपर से गिरे पीले पत्तों
को उलझे बालों से झारती हो
अच्छा लगता है जब तुम…

कितनी स्वच्छ निर्मल सी तुम बहती हो
तब हवा के रागों के साथ
खनक उठती हो पानी की बूंदों सी
गुनगुनाती तुम, कैसे राग लेती हो
गांव की चेड़ी मेड़ी पगडंडियों सी…
अच्छा लगता है जब तुम…