कवितायें कितनी ही छोटी क्यों न हों पर अक्सर उन चन्द शब्दों में ही कितना कुछ कह जाती हैं। कौशल कहने वाले के पास होना चाहिए-फिर वह उस थोड़े में कभी अपने पूरे समाज और कभी पूरे समय को समेट लेता है। कुछ इस तरह से कि पढ़ने वाला किताब हाथ में लिए देर तक सोचता और मनन करता रह जाता है।
कलावंती सिंह ने छोटी छोटी कविताओं में औरत होने के मायने, उसके चारों तरफ खड़ी दीवारें और दीवारों के पार उस के छूट गये सपनों को बड़ी बारीकी से बयां किया है-कहा कम गया है पर सोचने के लिए बहुत कुछ छोड़ देता है।
‘‘चालीस पार की औरत’’ कलावंती जी का पहला काव्य संग्रह है। जैसा कि पुस्तक के नाम से ही समझ आ जाता है-इस संग्रह में अपनी हर भूमिका में मुख्यतः औरत की ही बात है-पुत्री ,बेटी, बहन, पत्नी और मां-इसके अलावा प्रेयसी बन कर प्रेम देने और पाने को आकुल व्याकुल। औरत की बात बाद में-शुरूआत उसके लड़कपन से। लड़की उनके संग्रह की पहली कविता हैः-
बाबू जी की चिंताओं सी ताड़ हुयी।
अम्मा की खीज में पहाड़ हुयी।।
पर सवाल यह है कि अपने आप को लेकर लड़की स्वयं क्या सोचती है।
वह देखती है उड़ती पतंगे और तौलती है पांव।
मतलब वह पक्षी की तरह खुले आसमान में आज़ाद उड़ना चाहती है। कितना कुछ चाहती है वह अपने लिए-कितने सपने-कितनी उमंग-ज़िदगी को ले कर कितनी योजनायें।
वह दूब से उसका हरापन मांग लायेगी
सूरज से उधार लेगी रोशनी
चिड़िया से पूछेगी दिशा
और आसमान का नीला रंग,
उसके दुप्पट्टे में सिमट आयेगा।।
पर चाहने से ही सब कुछ मिल तो नहीं जाता न! औरत होने के नाते तो बहुत कुछ यूंही पीछे छूटता जाता है। लड़कपन के सपने देखती वह लड़की अपने नारी होने का अर्थ जल्दी ही समझ लेती है। ‘‘नारी’’ इस संग्रह की दूसरी कविता है।
‘‘मेरी पूरी कोशिश होती है कि मैं इस बंद दरवाज़े के आगे कोई राह तलाश लूं।’’
कितनी निराशा और हताशा है इस एक वाक्य में? एक निराशा पढ़ने वाले के मन पर हावी होने लगती है-क्योंकि उसे पता है कि आगे के सारे रास्ते बंद हैं और खुल सकने वाला कोई द्वार सामने नहीं है-बस ध्वनित प्रतिध्वनित होती हुयी एक निराशा भर हैः-
‘‘नारी तुमसे जुड़े अंत नकारात्मक ही क्यों उतरते हैं मेरी चेतना में।’’
संग्रह में अलग अलग भाव भगिमाओं के साथ बहुत सी छोटी छोटी कवितायें हैं। सब से रोचक है एक ही विषय वस्तु पर एक साथ एकाधिक भाव और उद्गार-मोनालिसा पर एक के बाद एक सात कवितायें। बेटी पर चार कवितायें और अन्ततः ‘‘चालीस पार की औरत’’ पर अपेक्षाकृत थोड़ी लंबी तीन कवितायें। अपनी इन्हीं तीन कविताओं के शीर्षक पर कवयित्री ने अपनी पुस्तक को नाम दिया है।
सबसे पहले मोनालिसा का रूपक लेकर कवयित्री ने अपने आप से या कहा जा सकता है कि हर एक औरत से सवाल पूछा है कि दरअसल उसकी हंसी के पीछे का सच क्या है-वह सच कुछ भी हो सकता है-उस मुस्कुराहट का अर्थ उमंग से ले कर उसकी हार या उसका अकेलापन-या फिर किसी के प्यार में लिप्त है वह-या फिर उसका कोई दुख-अपने प्रिय के द्वारा छले जाने का आधात। पर अभी भी व्याख्या पूरी कहां हुयी है-अभी भी स्त्री होने के अर्थ में कितना कुछ अनखुला और अनकहा रह गया है। सवाल अभी भी हवा में लटका हुआ है।
तुम्हारी मुस्कान में ख़ुशी है या क्लेश
किसी की प्रशंसा है या द्वेष
तुम्हारी मुस्कान का अर्थ क्या है मोनालिसा?
अब बेटी-एक, दो,तीन, चार। अलग अलग अर्थो और भूमिकाओं में।
वह नटखट मेरी चप्पलें पहन कर चलती है।
उस की यह हंसी
मैं फिर हंस रही हूं
मैं फिर से बड़ी हो रही हूं।
बेटी का होना कभी मां को फिर से एक बार अपने बचपन में पहुंचा देता है और कभी यही बेटी पता नही कब अपनी मां की मां बन जाती हैः-
ध्यान से सड़क पार करना मां,
पूरी नींद सोओ मां,
किसी के तानों पर मत रोओ मां।
बहुत सारी छोटी छोटी सारगर्भित कविताओं के बाद इस पुस्तक की तीन महत्वपूर्ण कवितायें-‘‘चालीस पार की औरत’’
चालीस पार की औरत को लगता है,
ठीक बरगद की तरह ठहर गयी है
उसकी ज़िदगी भी।।
चालीस साल की उम्र पार करने के बाद यह औरत नासमझ नहीं रह गयी है। सब कुछ जान गयी है वह। यह ज्ञान उसकी शक्ति भी है और त्रासदी भीः-
ये चालीस पार की औरत
बड़ी खुद्दार है यह, खु़दमुख्तार है,
वह तुम्हारे छल पहचानती है,
वह घूमती है तीनों लोकों में,
तीनों युगों में-त्रेता, द्वापर और कलियुग में,
बचाये रखती है अपने हिस्से का सतयुग।
और अन्ततः उनकी सोच और चाहत
सोचती हैं जायेंगी
मुक्ति के देश
आजकल और परसों।
पर कुछ भी तो नही करती वह-और कुछ कर पाना संभव ही कहां है उन के लिए सिवाय
अपने अपवित्र मालिकों के सामने लेती हैं
जीवन भर अपनी पवित्रता की शपथ
चालीस पार की औरत का जीवन
एक सूनी डगर है
उतरती हुयी धूप है
भीतर शोर
ऊपर की चुप है।
तिनके सा सुख
और उम्र भर का विषाद
स्नेह बूंदो से खरीद डाला
मैंने अंतहीन अवसाद
और ये भी
तुमसे क्या पुछूं
ख़ुद अनुत्तरित सवालों की गुनहगार हूं मैं
जो कभी किये भी नहीं,उन्ही गुनाहों का स्वीकार हूं मैं।
इस तरह की कवितायें कितना कुछ छोड़ देती हैं सोचने के लिए। कितनी सच है यह शिकायतः-
बहुत झमेलों में भी
उलझी ज़िदगी में भी,
मैंने चिड़िया सा मन बचाए रखा,
इतने दिन बाद मिले हो
तो उसे उड़ाने में लगे हो।।
पर औरत केवल उतनी ही तो नहीं जितना समाज समय और साथ ने उसे बनाया है। वह एक हाड़मास का इंसान भी तो है। उस में इच्छाऐं भी जगती हैं। तब मन पर बनाए गये सारे व्यवधान टूटने लगते हैं।
किसी ख़ुबसूरत लम्हे में,
कोई ख़ूबसूरत चाह
पता नहीं क्यो इतनी तीव्रता से जन्म लेती है
कि अपनी पहचानी सीमाएं
बहुत धूमिल पड़ने लगती हैं।
और
अपनी घर गृहस्थी से ऊब कर
अपनी उम्र के चालीसवें पड़ाव पर।
अतृप्त कामनाओं के प्रेत उसे डराते हैं
लिखी जो चिट्ठी उसने बीसवे बरस में
कभी कभी उस चिट्टी की याद सताती है
लिखेगी एक चिट्ठी ठीक मृत्यू से पहले
अब की भेजेगी सही पते पर।।
इसके अलावा और भी कवितायें हैं। कविता कुछ शब्द भर ही तो नही होती-वहां तो छोटी सी गागर में भरा हुआ भावनाओं का सागर होता है। राग, द्वेष और हताशा ही नही क्रोध और प्रतिशोध भी होता है।
जब तक मानस पर रहेगी स्मृति दुहरे न्याय की,
मैं लिखूंगी, लिखती रहूंगी,
तब तक अबाध गति से व्यथा को तिमिर को।।
क्योंकि-
कविता नव किसलय से ही नहीं
चट्टानों से भी फूटा करती है।।
कितना कुछ कहा है और कितना कुछ बिना कहे बता दिया है। सोच के उस सागर को खोल पाना-फिर खोल कर समेट पाना आसान है क्या? इस संग्रह की एक ख़ास बात यह भी है कि कलावंती जी ने अपनी तमाम कविताओं में इतना दर्द उड़ेलने के बाद बहुत कुछ आशावादी भी कहा है।
सोचती हूं
काश पिता देख पाते
मैंने ठीक उनके सपनों से
कुछ नीचे ही सही
पर बना तो ली है
अपनी एक दुनिया
और यह एक कविता भी
मैंने कहा
प्रेम
और झर पड़े कुछ हरसिंगार
और भर गई सिर से पांव तक अमलतास से,
और ज़िदगी
तुम्हारी शुभाकांक्षाओं के उजास से