
25 जून 1975 की वो तारीख कभी भूली नहीं जा सकती। भारतीय राजनीति के इतिहास में तत्कालीन विपक्ष द्वारा एक बदनुमा दाग करार कर दिए गए इस दिन की याद इसलिए भी बार- बार आती है क्योंकि इस दिन देश में आपात काल की घोषणा करने से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के निर्देश पर देश की सभी विपक्षी पार्टियों के नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया था। इसके बाद पूरे देश में आतंक और दहशत के एक ऐसे दौर की शुरुआत हो गई थी जिसमें सरकार के खिलाफ एक शब्द भी बोलने का मतलब सीधे जेल की सजा ही माना जाता था।
एक साल उन्नीस महीने तक चले सरकारी आतंक के इस दौर में पुलिस और प्रशासन को अकूत अधिकार दे दिए गए थे जिसका बेजा इस्तेमाल करने से भी प्रशासन ने कभी कोई चूक नहीं की। निर्दोष लोग जेल में ठूंस दिए गए थे। छोटी- मोटी चोरी जैसे साधारण अपराध करने वाले भी आपातकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत जेल में बंद कर दिए गए थे। इस क़ानून में जमानत का भी कोई प्रावधान नहीं था।
मेंटेनेन्स ऑफ़ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट (मीसा) के नाम से मशहूर इस क़ानून का पालन करते हुए ही विपक्ष के तमाम नेता जेल में बंद थे इनमें एक नेता लालू प्रसाद यादव भी हुआ करते थे जो बाद में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने और आजकल भी जेल वास कर रहे हैं। आपातकाल के दिनों में जब वह जेल में बंद थे उसी दौरान उनकी बेटी का जन्म हुआ था जिसका नाम उन्होंने इसी क़ानून के नाम पर मीसा रख दिया था। मीसा वही अब डॉक्टर मीसा यादव के नाम से जानी जाती हैं।
आपातकाल में सरकार की ज्यादतियां चरम पर थीं। उन दिनों प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अलावा उनके छोटे बेटे संजय गांधी की भी तूती बोलती थी। संजय का हुक्म सरकारी हुक्म माना जाता था, हालांकि वो सरकार में किसी पड़ पर नहीं थे। संजय गांधी की उस दौरान कितनी चलती थी उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आपातकाल के दौरान तत्कालीन केंद्र सरकार ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम की एक घोषण की थी उस पर बड़ी जोर- शोर से अमल करने की बात सरकारी मशीनरी किया करती थी।
इसके साथ ही संजय गांधी ने भी व्यक्तिगत स्तर एक पांच सूत्रीय कार्यक्रम शुरू किया था जिसे सरकारी कार्यक्रम का हिस्सा बना दिया गया था और इस तरह सरकारी मशीनरी 20 नहीं 25 सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करने पर जोर दिया करती थी। आज उन्हीं संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी केंद्र सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीत कर केन्द्रीय मंत्री हैं और उनके बेटे वरुण गांधी लोकसभा के सांसद हैं।
तब से लेकर आज तक राजनीति में बहुत बदलाव आ चुका है। आपातकाल की ज्यादतियों का एक नजारा इस रूप में भी देखने को मिला था कि तब सरकारी कार्यक्रम के तहत वृक्षारोपण को बढ़ावा देने, जनसंख्या नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रमों को गति देने जैसे सकारात्मक सुधार कार्यक्रम भी शुरू किये गए थे लेकिन सरकारी मशीनरी ने माहौल कुछ ऐसा बना दिया कि सरकारी कर्मचारियों को नौकरी में प्रमोशन देने, स्कूल-कॉलेज में प्रवेश पाने तथा ऐसे दूसरे किस्म के कामों के लिए परिवार नियोजन (नसबंदी) के केस लाने जरूरी कर दिए गए थे। ऐसे में कई बार ऐसा भी हुआ कि अविवाहित युवकों को भी अपना काम कराने के लिए खुद अपनी ही नसबंदी तक करवानी पड़ी थी। कुछ चतुर चालाक लोग ऐसे भी थे जो नसबंदी के फर्जी प्रमाण पत्र लाने में भी कामयाब हो गए थे। इससे कहीं न कहीं भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिला था।
आपातकाल के दौरान दो तरह के कैदी जेल में बंद थे एक वो जो राजनीतिक दलों के नेता थे जिन्हें सरकार ने आंतरिक सुरक्षा को खतरे के बहाने जेल में बंद करवा दिया था। दूसरे इस तरह के कैदी थे जो चोरी-डकैती जैसे आम अपराधों की सजा जेल में काट रहे थे। 1977 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जब सरकार ने आपातकाल समाप्त करने की घोषणा की तो सारे राजनीतिक बंदी जेल से बाहर आ गए। इन राजनीतिक बंदियों के साथ ही साधारण अपराध वाले कई कैदी भी जिनकी सजा की अवधि आपात काल के साथ ही समाप्त हो रही थी वो भी जेल से बाहर आ गए।
इन कैदियों का आपातकाल में जेल प्रवास के दौरान राजनीतिक कैदियों के साथ भी संपर्क हुआ और बाद में इनका भी किसी न किसी रूप में राजनीति के सितारों के रूप में उदय हो गया था। आपातकाल की एक उपलब्धि इस रूप में भी देखी जा सकती है कि 1977 के चुनाव में कांग्रेस को पहली बार शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा था और आजादी के बाद से लगातार सत्ता में काबिज रहने वाली इस पार्टी को इस चुनाव में सरकार से बेदखल होना पड़ा था। हारते- हारते भी कांग्रेस ने लोकसभा की 150 सीटें जीती थीं लेकिन उत्तर भारत के चार प्रमुख राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसको एक भी सीट नहीं मिली थी।
रायबरेली से पहली बार इंदिरा गांधी को भी पराजय का मुंह देखना पड़ा था। आपातकाल के दौरान देश में सब कुछ गलत ही हुआ ऐसा कहना भी ठीक नहीं होगा। ये माना कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में तानाशाही के एक अलग किस्म के दौर से लोगों का सामना जरूर हुआ लेकिन इस तानाशाही ने आम जनता को इतनी राहत जरूर दी थी कि सभी सरकारे कर्मचारी समय पर दफ्तर आते थे। आम लोगों के काम समय पर होते थे, रेल अपने नियत समय पर चलती थीं और ऐसा भी नहीं हुआ कि दिल्ली से इलाहाबाद के लिए प्रस्थान करने वाली कोई रेल रास्ता बदल कर कोलकाता पहुंच गई हो।
दुकानों में सामान एक दाम पर मिलता था। दुकानदारों को सामान की सूची तय मूल्य के साथ लगाना अनिवार्य था। तय दाम से अधिक कीमत पर सामान बेचने वाले दुकानदार को भी रासुका के तहत बंद करने के प्रावधान थे। इसलिए बहुत कुछ गलत होने के साथ ही देश में काफी कुछ ठीक भी हो रहा था जिसस्र जनता का एक तबका आपात काल में परेशान था तो एक तबका खुश भी था। आपातकाल अगर बुरा ही होता तो महज ढाई साल बाद ही कांग्रेस की सत्ता में वापसी भी कैसे होती। इंदिरा गांधी ने बाद में यह स्वीकार भी किया कि आपातकाल लगाना एक बड़ी राजनीतिक भूल भी थी।
आपातकाल के बाद कांग्रेस के विकल्प के रूप में वजूद में आई जनता पार्टी की सरकार पूरे समय अपने ही अंतर्विरोधों से घिरी रही और पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के खिलाफ बदले की भावना से काम करने की मानसिकता का शिकार भी रही, जिसके चलते शाह आयोग का गठन भी हुआ लेकिन जांच में कांग्रेस नेताओं के खिलाफ कुछ भी हाथ नहीं लगा और 1980 में कांग्रेस की बहुमत के साथ सरकार में वापसी भी हो गई। यह सब कहने का यह भी मतलब नहीं है कि आपातकाल ठीक था। आपातकाल एकदम गलत था और इस दौर ने लोकतंत्र को बहुत नुक्सान भी पहुंचाया है। कहना गलत नहीं होगा कि आपातकाल तो तानाशाही का एक ट्रेलर था।