ग्रामयुग डायरी : मेरा मन क्यों भटका?

जैविक विकास के क्रम में मनुष्य वर्तमान के पार जाकर भविष्य के बारे में सोचना सीख गया है, लेकिन अभी भी वह इस कार्य में सहज नहीं है। जब वह दूर की सोचता है तो नजदीक का भूल जाता है और जब नजदीक के बारे में सोचता है तब वह दूर का भूल जाता है। एक समय में वह तात्कालिक और दीर्घकालिक के बीच एक को ही चुन सकता है।

मोबाइल फोन एक कमाल की चीज है। बेंगलुरु यात्रा के दौरान इस फोन के कारण एक ऐसी बात हुई जो शायद मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा। मैं जिस बात का जिक्र कर रहा हूं, वह बेंगलुरु के द ग्रीन पाथ इको होटल में हुई। 4 जुलाई को दिन भर घूमने के बाद रात को मुझे और राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के अन्य कार्यकर्ताओं को इसी होटल में ठहराया गया था। इस होटल के मालिक एच.आर. जयराम के बेंगलुरु में कई आर्गेनिक फूड स्टोर, रेस्त्रां और फार्म भी हैं। जयराम  मूलतः एक वकील हैं। बेंगलुरु में अपनी वकालत से उन्होंने खूब दौलत कमाई। लेकिन इस कमाई को अपने ऐशो-आराम पर खर्च करने की बजाए उन्होंने आर्गेनिक खेती में निवेश करना उचित समझा। आज पूरी दुनिया में आर्गेनिक खेती को लेकर जो आंदोलन चल रहा है, उसमें उनकी बड़ी भूमिका है।

5 जुलाई को जब मैं जयराम जी के होटल में मौजूद आर्गेनिक रेस्त्रां में नाश्ते के लिए आया तो देखा कि गोविन्दजी एक गोल मेज पर बैठकर कुछ लोगों से बात कर रहे हैं। मेज के पास एक कुर्सी खाली थी, सो मैं भी वहीं बैठ गया। इसी बीच गोविन्दजी के सहयोगी अरविन्द तिवारी  ने अपने मोबाइल से हमारी एक फोटो खींच ली। इस फोटो को दिखाकर अरविंद, जिन्हें हम प्यार से मंटू कहते हैं, ने हमारी खूब खिंचाई की। सबने उनकी बात हंस कर टाल दी, लेकिन मैं सोच में पड़ गया।

उसी दिन मेरी दिल्ली की ट्रेन थी। नाश्ते के बाद कुछ साथियों से एक राउंड और बात करने के बाद मैं 1 बजे के आस-पास स्टेशन के लिए रवाना हो गया। वापसी की यात्रा कर्नाटक संपर्क क्रांति से थी। 45 घंटे की इस यात्रा में मेरे साथ विवेक त्यागी थे। भारतीय पक्ष की जो नई टीम बन रही है, उसमें उनकी एक प्रमुख भूमिका है। इसी के साथ गोविन्द जी ने उन्हें कई और जिम्मेदारियां भी सौंप रखी हैं। विवेक स्वभाव से बिंदास आदमी हैं। हमेशा खुश रहना उनकी आदत है। वापसी की यात्रा में हमारी बर्थ कनफर्म नहीं थी। इसके बावजूद उनके चेहरे पर कहीं कोई तनाव नहीं था।

ट्रेन में साइड लोअर की आरएसी बर्थ पर बैठते ही हमारे बीच बातचीत शुरू हो गई। विवेक के लिए चिंतन बैठक बेंगलुरु में समाप्त हो गई थी किंतु मेरे लिए वह अब भी जारी थी। मैं चाह रहा था कि दिल्ली पहुंचने के पहले हमारे बीच ग्रामयुग और भारतीय पक्ष से जुड़े विभिन्म मुद्दों पर एक रणनीति बन जाए। लेकिन थोड़ी देर में ही मुझे आभास हुआ कि विवेक जी की रुचि हाइपोथेटिकल मुद्दों पर चर्चा करने में नहीं है। इसके बावजूद भी जब मैंने बातचीत जारी रखनी चाही तो उन्होंने थोड़ा खीझते हुए कहा कि विमल आप सोचते बहुत हो।

विवेक ने जो कहा, वह कोई नई बात नहीं है। उनसे पहले भी कई साथी यह बात कह चुके हैं। इसमें कुछ हद तक सच्चाई भी है। सुबह मंटू ने जो फोटो खींची थी उससे उपजे सवालों से मैं अभी भी जूझ रहा था। फोटो में साफ दिखाई दे रहा है कि गोविन्दजी बात करने के मूड में हैं लेकिन उनके सामने बैठे तीन कार्यकर्ता, जिसमें मैं भी हूं, अपने मोबाइल में डूबे हुए हैं। हम जानबूझकर गोविन्दजी की उपेक्षा नहीं कर रहे थे। लेकिन यह भी सच है कि हम मोबाइल पर ऐसा कुछ नहीं कर रहे थे जो बहुत जरूरी था। वास्तव में मुझे अब याद भी नहीं कि उस समय मैं अपने मोबाइल पर क्या कर रहा था।

साफ है कि मैं और मेरे साथी उस क्षण का सदुपयोग नहीं कर पाए। गोविन्दजी के साहचर्य में उनसे कुछ नई बात सीखने-समझने की बजाए हम अपना समय मोबाईल पर अनायास ही नष्ट किए जा रहे थे। जहां तक मेरी जानकारी है, हम तीनों में से किसी को भी मोबाइल चलाने की ‘लत’ नहीं है। सामान्य अर्थ में हम सभी पूरी तरह स्वस्थ और सचेत हैं। फिर भी हमारा मन भटक गया।

इस भटकाव की जड़ें बहुत पुरानी हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि जब आदिम मनुष्य जंगलों में रहते हुए अन्य हिंसक पशुओं के साथ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था, तब उसके लिए जरूरी था कि वह किसी एक चीज पर लंबे समय तक ध्यान केन्द्रित करने की बजाए आस-पास मौजूद तात्कालिक खतरों परअधिक ध्यान दे। इसी के साथ तब मनुष्य के लिए यह भी जरूरी था कि वह दीर्घकालीन लाभ की बजाए तात्कालिक सुख और तुरंत के फायदों पर ध्यान दे।

पिछले कुछ हजार वर्षों में मनुष्य का विकास कुछ इस प्रकार हुआ कि जंगल में मौजूद तात्कालिक खतरों के कारण उसकी जान जाने की आशंका लगभग समाप्त हो गई है। अब वह तात्कालिक लाभ की बजाए दीर्घकालीन लाभ की इच्छा रखता है। लेकिन अभी भी उसका दिमाग पुरानी आदत भूल नहीं पाया है। वह आज भी अचानक पैदा होने वाले खतरों और छोटे-छोटे सुख की तलाश में इधर-उधर भटकता रहता है।

जैविक विकास के क्रम में मनुष्य वर्तमान के पार जाकर भविष्य के बारे में सोचना सीख गया है, लेकिन अभी भी वह इस कार्य में सहज नहीं है। जब वह दूर की सोचता है तो नजदीक का भूल जाता है और जब नजदीक के बारे में सोचता है तब वह दूर का भूल जाता है। एक समय में वह तात्कालिक और दीर्घकालिक के बीच एक को ही चुन सकता है। इस प्रवृत्ति को वैज्ञानिकों ने नाम दिया है- काग्निटिव ट्रेड आफ हाइपोथिसिस। पशुओं को यह समस्या नहीं होती। वे वर्तमान में और तात्कालिक धरातल पर जीते हैं। इसलिए उनकी अल्पकालीन याद्दास्त मनुष्य से अच्छी होती है। विश्वास न हो तो नीचे दिया लिंक देख लें।

इस मुद्दे पर डेनियल काह्नमैन ने अपनी किताब थिंकिंग फास्ट एंड स्लो में विस्तार से चर्चा की है। वे मानव मस्तिष्क को सिस्टम-1 और सिस्टम-2 में बांटकर देखते हैं। ये दोनों सिस्टम एक साथ काम नहीं करते। एक सक्रिय होता है तो दूसरा निष्क्रिय हो जाता है। अधिकतर समय हमारे जीवन की कमान सिस्टम-1 के पास होती है जो सोचकर नहीं बल्कि आटोपायलट मोड में काम करता है। सिस्टम-1 वर्तमान में जीता है। उसका मानना है कि कल किसने देखा है। उसकी रुचि तात्कालिक चीजों में होती है। इसके विपरीत सिस्टम-2 बहुत सोच-समझ के निर्णय लेता है। उसके पास किसी बिंदु पर एकाग्रचित्त होने की क्षमता होती है। वह दूर भविष्य में देख सकता है। लेकिन मजे की बात यह है कि सिस्टम-2 तभी काम करता है जब सिस्टम-1 उसे ऐसा करने के लिए कहे। सिस्टम-1 एक ऐसा तुनकमिजाज बेटा है जिसकी मर्जी के बिना उसका समझदार बाप (सिस्टम-2) मुंह नहीं खोल सकता।

भारतीय शास्त्रों में मन की जितनी बदमाशियां गिनाई गई हैं, वे वास्तव में सिस्टम-1 से जुड़ी हैं। इसी सिस्टम-1 को साधने के लिए हमारे ऋषि मुनियों ने जप-ध्यान, सत्संग और बीच-बीच में एकांतवास का बड़ा महत्व बताया है। टीम बनाकर काम करने और अपनी योजनाओं को लिखते रहने से भी सिस्टम-1 कुछ हद तक नियंत्रण में रहता है।

मैं यह सब करता हूं। लेकिन मेरी लाख कोशिश के बावजूद सिस्टम-1 अपनी हरकत करने से बाज नहीं आता। गोविन्दजी की उपस्थिति में यदि मेरा मन भटककर मोबाइल में डूब गया तो सच मानिए इसमें मेरा कोई दोष नहीं। यह सब सिस्टम-1 की वजह से हुआ। मंटू की फोटो ने सिस्टम-1 को रंगे हाथों पकड़ा है, इसलिए उनकी फोटो विशेष है। उसे लाख टके की फोटो कहें तो अतीशयोक्ति नहीं होगी। इस फोटो को देखकर आपको भी अपने सिस्टम-1 के बारे में सोचने का मौका मिलेगा।

 (विमल कुमार सिंह, संयोजक, ग्रामयुग अभियान।)

First Published on: August 7, 2022 12:40 PM
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