सन 1965 में शहीद ए आज़म भगत सिंह व उनके साथियों पर पहली बार एक फ़िल्म “शहीद” सिनेजगत में आई। यह वह दौर था जब देश की आज़ादी को बचाने व उसकी रक्षा करने का जज्बा पुरे जोरो पर था, और उनमें था अग्रणी सरताज हीरो भगत सिंह। आर्य समाज के भजनीक शहरों, कस्बों व गाँवो के चौराहों पर सरदार भगत सिंह के गीत, भजनों की लय पर ढोलकी, बाजे व चिमटों के संगीत पर सुनाया करते जिनको सुनने के लिए सैंकडों की भीड़ एकत्रित होती थी।
मेरा परिवार स्वतन्त्रता संग्राम, कांग्रेस व आर्य समाज से जुड़ा हुआ था, इसलिए सभी को शाम ढलते ही जल्दी खाना बनाने व खाने के बाद इन कार्यक्रमों में जाने का जनून होता था। भगत सिंह के परिवार का आर्य समाज से जुड़ाव की गाथा सब से ज्यादा प्रभावित करती कि किस प्रकार उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह ने आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती से दीक्षा लेकर समाज सुधार का काम किया था। उनके पिता सरदार किशन सिंह व चाचा सरदार अजीत सिंह ने देश की आज़ादी के लिए सजाए काटी।
भगत सिंह की माँ तथा बहनों की तरफ से भजनीक व दूसरे लोक गायक घोड़िया गया करते जो पूरे वातावरण को भावुक कर देती थी। हम सबको सरदार भगत सिंह, उनके साथियो राजगुरु व सुखदेव के प्रति आदर ही नहीं था बल्कि गर्व भी था उनकी शहादत पर। अनेक बार कई मित्रो ने बताया कि सरदार भगत सिंह की माता अभी जीवित है तथा अपने छोटे बेटे सरदार कुलतार सिंह के साथ सहारनपुर में रहती है। मन में सदा यह इच्छा बनी रही कि कैसे भी उस वीर माता के दर्शन किये जाएं।
सन् 1974 में मेरी बहन अरुणा का विवाह सहारनपुर में ही रह कर वकालत कर रहे विजय पाल सैनी के साथ हुआ। अब तो सहारनपुर आने जाने का जरिया ही हो गया। फिर उसी वर्ष सरदार भगत सिंह के छोटे भाई सरदार कुलतार सिंह ने सहारनपुर से विधानसभा का चुनाव लड़ा। पानीपत से अनेकों कांग्रेस कार्यकर्ता इस चुनाव में आये, मेरी माता जी के साथ मैं भी सहारनपुर पहुंचा। मेरा आकर्षण चुनाव के साथ -साथ सरदार भगत सिंह के परिवार के दर्शन करने का भी था।
इसी दौरान एक शाम को मैं व मेरी माँ कुलतार सिंह के प्रद्युम्न नगर स्थित भगत सिंह निवास में पहुचे। वहाँ देखा घर के मेन गेट के पास एक मुढ्ढ़े (बेंत की कुर्सी) पर एक वृद्ध महिला जो बड़ी उम्र होने के बाद भी स्वस्थ व तगड़ी भी है, बैठी हैं। घर में घुसने के बाद उन्होंने ही हमारा स्वागत किया तथा पीने को पानी व बाद में दूध का गिलास ला कर दिया। हम माँ -बेटा चुप थे व उसे ढूंढ रहे थे जो थी ‘भगत सिंह की माँ’ । उस वृद्धा की भी अनुभवी नजरे हमारी उत्सुकता को ताड़ गयी और वे तपाक से बोली ‘ पुत्तरा मैं ही भगत सिंह दी बेबे हाँ ‘। यह सुनते ही हमारा तो रोना ही छूट गया। हमें यकीन ही नहीं हो रहा था कि हम उस वीर माता ‘विद्यावती ‘के सामने बैठे हैं। उन्होंने हमें ढाढ़स बंधवाया फिर सुनाने लगी अपने ‘वीर पुत्तर भगत’ के बचपन व जवानी के किस्से। माँ की आँखे जोश व गर्व से रोमांचित थी व हम अत्यंत भावुक।
कैसे समय निकल गया पता ही न चला, आख़िरकार वे हमें विदा करने के लिए खड़ी हुईं अब हमारी भी झेंप खत्म हो चुकी थी। उन्होंने अपना आशीर्वाद देते हुए हमे गले लगाया, मैंने हिम्मत से अपनी टूटी फूटी पंजाबी में उनसे कहा ‘बेबे मैनु बी इंज घुट ज्यो भगत सिंह ने घुटदि सी’। (माता मुझे भी ऐसे प्यार कर जैसे भगत सिंह को करती थी) बेबे खिलखिला कर हंसी व प्यार से गले लगाया। अभी भी यकीन नही होता क्या हम ही थे वे, जिन्हें सरदार भगत सिंह की माँ का दुलार मिला। सच में ‘वो तू ही थी जो थी भगत सिंह की माँ।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।)