नई शिक्षा नीति और मातृभाषा


दुनिया के किसी भी देश में शिक्षा का बुनियादी आधार बच्चे की मातृभाषा को ही माना जाता है। मातृभाषा से मतलब उस भाषा से है जो बच्चे को जन्म देने वाली माता से उसे विरासत में मिलती है। सच बात तो यही है कि बच्चा सबसे पहले जिस शब्द का उच्चारण सबसे पहले करते है वो शब्द उसकी मातृभाषा का मां शब्द ही होता है। यही मातृभाषा है जो उसके आसपास के माहौल में बोली, समझी और लिखी जाती है। इसी भाषा में पल और बढ़ कर बच्चा जवान भी बनता और बूढ़ा भी। इसलिए तीसरी दुनिया के कुछ भारत जैसे अपवाद देशों को छोड़ कर दुनिया के कमोबेश सभी देशों में बच्चे को उसकी मातृभाषा में ही शिक्षा देने की व्यवस्था है।

भारत में देश की आजादी के बाद कई मौकों पर नई शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार किया गया और उस पर अमल भी हुआ लेकिन अभी तक ऐसे केवल दो प्रारूपों को शिक्षा नीति के मानक दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया गया और उस पर अमल भी किया गया। ऐसा एक मौका 1986 में आया था जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और उनकी सरकार के शिक्षा मंत्री कृष्ण चन्द्र पन्त तब नई शिक्षा नीति का दस्तावेज लेकर आये थे। दूसरी बार अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मंत्री की सरकार में शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक शिक्षा नीति का यह नया दस्तावेज लेकर सामने आये हैं।

गजब का संयोग है कि 1986 और अब उसके 34 साल बाद शिक्षा नीति के जो दो दस्तावेज देश के सामने रखे गए हैं और उनको नया दस्तावेज बताया जा रहा है वो वास्तव में नए दस्तावेज नहीं हैं बल्कि पुराने दस्तावेजों की सामयिक समीक्षा भर ही हैं। एक संयोग यह भी है कि 86 और 2020 में शिक्षा नीति से सम्बंधित कथित नए दस्तावेज देश के सामने रखने वाले दोनों ही महानुभाव स्वर्गीय कृष्ण चन्द्र पन्त और डॉक्टर रमेश पोखरियाल निशंक देश के उत्तराखंड राज्य का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।

शिक्षा नीति के ये दोनों दस्तावेज इसलिए एकदम नए नहीं कहे जा सकते क्योंकि 1986 में जो दस्तावेज रखा गया था वो कोठारी कमीशन की उस सिफारिश का ही नीतिगत रूप था जो 1968 में देश की संसद ने स्वीकृत कर दी थी। गौरतलब है कि कोठारी कमीशन का गठन 1964 में किया गया था और 1966 में कमीशन ने अपनी फाइनल रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी। कमीशन ने तब सरकार से अपनी सिफारिश के साथ यह अनुरोध भी किया था कि इसे शिक्षा नीति का अंतिम दस्तावेज न माना जाये बल्कि इस दस्तावेज पर हर पांच साल में समीक्षा के बाद पुनर्विचार की गुंजाइश भी हमेशा बनी रहनी चाहिए। इस लिहाज से शिक्षा नीति की एक समीक्षा 1986 में की गई थी और दूसरी इस बार 34 साल बाद की गई है। इसमें भी नया कुछ नहीं है और 86 में भी कुछ नया नहीं था।

दोनों ही बार समय बदलती परिस्थितियों के अनुरूप कोठारी कमीशन की सिफारिशों के अनुपालन में शिक्षा नीति में नए आयाम जोड़े गए हैं। इसलिए इनको पूरी तरह से नया कहना उचित भी नहीं होगा। इसी सन्दर्भ में एक सवाल भाषा का भी है। त्रिभाषा फार्मूले के तहत मातृभाषा में बच्चे को शिक्षा देने की बात कोठारी कमीशन ने भी कही थी लेकिन उस सिफारिश को उसकी सम्पूर्णता में पूरे देश में लागू नहीं किया जा सका। त्रिभाषा फार्मूले के तहत स्कूलों में एक क्षेत्रीय, एक राष्ट्रीय और एक विदेशी भाषा पढ़ाए जाने का प्रावधान था। 1986 की शिक्षा नीति में भी तात्कालिक बदलाव के साथ इसी भाषा नीति को लागू रखा गया और वही बात कुछ बदलावों के साथ इस बार भी लागू की गई है। मातृभाषा के सन्दर्भ में भी नई शिक्षा नीति में कुछ नया तो इस बार भी नहीं है लेकिन इसकी प्रस्तुति का अंदाज इसे नया जरूर बना देता है। इसी सन्दर्भ में वैश्विक हिंदी सम्मेलन द्वारा स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आयोजित ई-संगोष्ठी को भी उल्लेखनीय कहा जा सकता है।

इस अवसर पर संगोष्ठी का संचालन करते हुए वैश्विक हिंदी सम्मेलन के निदेशक डॉ. एमएल गुप्ता ‘आदित्य’ ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्ति, “हम कौन थे क्या हो गए, और क्या होगे अभी, आओ विचारे आज मिलकर समस्याएं सभी” का उल्लेख करते हुए कहा कि अक्सर लोग यह सोचते हैं कि भारत का अंग्रेजीकरण अंग्रेजों ने किया जबकि सत्य यह है कि स्वतंत्रता के समय भी देश के 99 प्रतिशत से भी बहुत अधिक लोग मातृभाषा में ही पढ़ते थे।

भारत के संविधान में हमने हिंदी को राजभाषा बनाया और विभिन्न राज्यों की भाषाओं को वहां की राजभाषा बनाया और धीरे-धीरे अंग्रेजी को समाप्त करते हुए भारतीय भाषाओं को अपनाने का संकल्प लिया। लेकिन इसके ठीक विपरीत शासन-प्रशासन सहित जीवन के हर क्षेत्र में अंग्रेजी तेजी से बढ़ती गई और देश के छोटे-छोटे गांवों तक अंग्रेजी माध्यम पहुंच गया। अब नई शिक्षा नीति में सरकार ने प्राथमिक स्तर या उससे आगे की शिक्षा मातृभाषा में देने की बात कही है। लेकिन तस्वीर अभी भी बहुत साफ नहीं है आज देश के सामने यह प्रश्न खड़ा है कि क्या नई शिक्षा नीति ने मातृभाषा में शिक्षा देने की बात को गंभीरता से लिया है?

इस आयोजन में देश के अनेक विश्वविद्यालयों, शैक्षिक संगठनों और संस्थानों के प्राचार्यों ने हिस्सा लिया था। इसी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर हिसा लेते हुए इंदौर के वैष्णव विद्यापीठ विश्वविद्यालय के कुलपति उपेन्द्र धर ने कहा कि यह अच्छी बात है कि नई शिक्षा नीति में सभ्यता, संस्कार, मातृभाषा और सभी भारतीय भाषाओं की बात हुई है। लेकिन मातृभाषा माध्यम लौटेगा कि नहीं यह कह नहीं सकते? ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ द्वारा इस संबंध में की गई यह पहल सराहनीय ही कही जायेगा। इस तरह के आयोजन से मातृभाषा के सन्दर्भ में ज्ञान और उत्साह अवसरों में भी वृद्धि होगी।