राहुल का चुनाव चोरी-विस्फोट; मोदी सरकार के समक्ष चुनौती

रामशरण जोशी रामशरण जोशी
मत-विमत Updated On :

प्रतिपक्ष नेता राहुल गांधी के ‘वोट चोरी-विस्फोट’ का अंतिम परिणाम क्या निकलेगा, यह विपक्ष के जन-प्रतिरोध के विस्तार पर निर्भर करता है। लेकिन, इस विस्फोट ने राज्य की तीन महत्वपूर्ण शाखाओं में से सबसे शक्तिशाली शाखा ‘कार्यपालिका’ की वैधानिक कार्यशीलता की ‘साख’ को संदिग्ध ज़रूर बना दिया है। इसके साथ ही, इसने शेष दो शाखाओं (विधायिका और न्यायपालिका) के समक्ष अपनी छवि को निष्कलंक बनाए रखने की प्रबल चुनौती भी खड़ी कर दी है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य की सर्वस्वीकृत अनौपचारिक शाखा, संचार-संवाद पालिका (प्रेस या मीडिया) की साख भी दाँव पर लगी हुई है। भारत में पिछले एक दशक के मोदी-शासनकाल में स्वयं अर्जित उपाधि ‘गोदी मीडिया’ से यह कब अपना पिंड छुड़ा सकेगा, इसके लिए इसे अब आनेवाले महीनों में रोज़-ब-रोज़ अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। यदि इसमें यह विफल रहता है, तो वह कलंकित उपाधि के अंगारों में झुलसता रहेगा।

लेकिन, इस लेखक की दृष्टि में, वोट चोरी-विस्फोट से संघ परिवार (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के ‘हिंदुत्व एजेंडा’ के भावी अस्तित्व के समक्ष भी महती चुनौती खड़ी हो गई है। विस्फोट ने इसके राजनैतिक शस्त्र (भाजपा व मोदी सरकार) की मारक क्षमता को कुंद कर दिया है। इसके साथ ही, विस्फोट ने हिंदुत्व एजेंडे की भावी सामाजिक-राजनैतिक सार्थकता को भी संदिग्ध बना दिया है।

बहुदिशात्मक मारक विस्फोट से एजेंडे की आंतरिक शक्ति भी उजागर हो गई है; संघ के साथ संपूर्ण हिंदू समाज नहीं है; संघ में समाज के सभी जाति-वर्गों को भाजपा-वोट में तब्दील करने की क्षमता नहीं है और न ही विभिन्नतावादी हिंदू मानस को एजेंडा-अनुकूल बनाने की शक्ति है। संघ परिवार एजेंडे के पक्ष में विभिन्नमुखी नैरेटिव ज़रूर रचता रहा है और रहेगा। लेकिन, यह विश्वास कि हिंदू मतदाता वोट में रूपांतरित होते रहेंगे, अब टूट चुका है, क्योंकि एजेंडे की आंतरिक-बाह्य मारक शक्ति की सीमाएँ उजागर हो चुकी हैं।

यह सही है कि संघ की दृश्य-अदृश्य भूमिका ने 2014 के आम चुनावों में भाजपा को 280 सीटें दिलाने में योगदान दिया; 2019 के आम चुनावों में 303 सीटों की प्राप्ति में भी संघ का सहयोग रहा होगा; 2024 के चुनावों में संघ की सक्रियता आधी-अधूरी रहने से भाजपा 303 से गिरकर 240 पर अटक गई। लेकिन, भाजपा की चुनावी सफलताओं का श्रेय हिंदुत्व एजेंडे को दिया जा सकता है, यह प्रश्न विवादास्पद बन चुका है। 2019 के आम चुनावों से पहले ‘पुलवामा त्रासदी’ की घटना ने भाजपा की 303 सीटों की प्राप्ति को विवादास्पद बना दिया था। यदि पुलवामा विस्फोट में केंद्रीय रिज़र्व फोर्स के 40 जवानों की शहादत नहीं होती, तो भाजपा को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता। उस वर्ष यह आम धारणा थी।

यदि हिंदुत्व की लहर रही होती, तो 2024 के चुनावों में संघ परिवार के सियासी शस्त्र भाजपा ‘400 पार’ रही होती। देश में गृहमंत्री अमित शाह ने इसी नारे की हुंकार लगाई थी, ना! लेकिन, क्या हुआ? भाजपा धड़ाम से नीचे गिरकर दो बैसाखीधारी (नायडू-नीतीश) बन गई। इसका सीधा अर्थ है कि देश का बहुसंख्यक समुदाय का मानस संघ-एजेंडे के वरण के लिए तैयार नहीं है।

यद्यपि, भाजपा-शासित राज्यों में ‘ध्रुवीकरण’ के बहुस्तरीय प्रयास किए जा रहे हैं; वैधानिक संस्थाओं में संघी घुसपैठ जारी है; भाजपा प्रवक्ता को जज बना दिया जाता है; सिटिंग जज बहुसंख्यकवाद के उपदेश देते हैं और असली राष्ट्रवाद को परिभाषित करने लगते हैं; पाठ्यक्रमों का भगवाकरण व इतिहास के पुनर्लेखन का सिलसिला अलग से चल रहा है; सैन्य कार्रवाई का नामकरण ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे संवेदनशील संबोधन से किया जाता है आदि-इत्यादि।

हिंदुत्व एजेंडे के अष्टभुजी प्रयासों के बावजूद भाजपा में आत्मविश्वास का गहरा अभाव झलकता है। और ‘चोरी विस्फोट’ से यह अभाव खुलकर सामने आ गया है। विस्फोट ने वोट चोरी के विभिन्न हथकंडों का पर्दाफाश किया है; कभी ईवीएम की धांधली सामने आती है, कभी जनसंख्या से अधिक मतदाता बन जाते हैं, और विपक्ष के सवालों पर चुनाव आयोग खामोश रहता है। लेकिन, वोट चोरी का ताज़ातरीन हथकंडा सबसे अधिक विकसित व महीन है, जिसे एक बार में आसानी से पकड़ना संभव नहीं था। महीनों की मशक्कत के बाद यह पकड़ में आया है। इसमें भोंडापन भी उजागर हुआ है-क्या एक ही कमरा 80 मतदाताओं का पता हो सकता है?

इंडिया टुडे द्वारा जांच करने पर वहाँ एक भी वोटर नहीं पाया गया और मकान मालिक ‘भाजपा समर्थक’ निकला! यदि हिंदुत्व एजेंडे के बल पर संघ परिवार स्वयं को बहुसंख्यक समाज का शुद्ध ‘प्रतिनिधि’ घोषित करना चाहता है, तो मोदी+शाह भाजपा शासन द्वारा ऐसी टुच्ची हरकत की ज़रूरत क्यों है? आज लोगों की धारणा में चुनाव आयोग भाजपा की गुपचुप शाखा बनता जा रहा है। जब हिंदुत्व का ध्वजवाहक संघ परिवार के साथ बहुसंख्यक समाज है, तो थोक के भाव में हिंदू भाजपा को ही वोट करेंगे। लेकिन, संघ+भाजपा का आत्मविश्वास डगमगाता दिखाई दे रहा है।

इसका सीधा निष्कर्ष यह है कि भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज ने हिंदुत्व एजेंडे को नामंजूर कर दिया है। उसे विकसित, समृद्ध, समतावादी, बहुलतावादी राष्ट्र चाहिए। उसे एकलधर्म-एकल संस्कृति-एकलतावाद की कोख से जन्मा विकृत राष्ट्र नहीं चाहिए। एकलतावाद पर आधारित इस्लामी देशों की कितनी फजीहत हो रही है, यह सर्वविदित है; क्या हम पाकिस्तान का विभाजन भूल गए? क्या पाकिस्तान में बलोचिस्तान विभाजन के कगार पर नहीं खड़ा है? क्या शिया समुदाय-प्रधान ईरान-इराक जंग याद नहीं है?

क्या मध्य पूर्व के इस्लामी देशों में हिंसात्मक अशांति फैली हुई नहीं है? विभाजित व स्वार्थी इस्लामी राष्ट्रों के कारण इज़राइल ने गाजा की क्या हालत बना रखी है? सारतत्त्व यह है कि कोई भी धर्म-मज़हब ‘अक्षुण्ण, सुरक्षित, विकसित, समृद्ध, समतावादी, शांतिवादी राष्ट्र’ का आधार-स्तंभ नहीं है। इस यथार्थ को समझा जाना चाहिए। चुनाव आयोग, अदालतों, ईडी-सीबीआई एजेंसियों के इस्तेमाल से हिंदुत्व एजेंडे को सफलता नहीं मिल सकती।

एक और बिंदु है सोचने के लिए। आम धारणा है कि हिंदू मध्यवर्ग हिंदुत्व-एजेंडे का प्रबल समर्थक है, जिसमें मुख्य रूप से ऊँची जाति का वर्ग है। इतिहास में इस वर्ग का चरित्र काफी जटिल रहा है; जहाँ इसमें चरम दक्षिणपंथी हुए हैं, वहीं वामपंथी भी; जहाँ यह आधारभूत नैतिक- सांस्कृतिक – राजनैतिक मानदंडों का पक्षधर है, वहीं इसमें ठेठ विपथगामी भी हैं; जहाँ इसने सार्वजनिक जीवन में विकृति को प्रश्रय दिया है, वहीं इसने शुचिता को भी प्राथमिकता दी है; जहाँ इसे वैभव-विलासिता-सुविधासंपन्न जीवन चाहिए, वहीं इसे त्याग-अभाव-उत्सर्ग और पीड़ा-हरण भी पसंद है।

निश्चित ही राहुल-विस्फोट से हिंदू मध्यवर्ग के एक हिस्से का संघ+भाजपा हिंदुत्व अभियान से ‘मोहभंग’ भी होगा। यह वर्ग संघ परिवार में विशिष्टता देखता है और भाजपा सत्ता प्रतिष्ठान को कांग्रेस से ‘भिन्न व विशिष्ट’ रूप में देखना चाहता है। लेकिन, राहुल-विस्फोट से इस वर्ग का एक हिस्सा आहत हुए बिना नहीं रहेगा। यह वह वर्ग है जो अपने नायक को सर्वगुणसंपन्न देखना चाहता है। कांग्रेस और अन्य आम दलों के नक्शेकदम पर संघ+भाजपा चलने लगे, यह इसे मंजूर नहीं। अतः राहुल-विस्फोट ने संघ परिवार के तिलिस्म को झकझोरा नहीं होगा, यह नामुमकिन है। वैसे, मोदी+शाह जोड़ी ‘नामुमकिन को मुमकिन और मुमकिन को नामुमकिन’ बनाने में उस्ताद मानी जाती है। लेकिन, इस दफा मोहभंग को रोकना आसान नहीं होगा।

आठवें दशक में बोफोर्स कांड में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की छवि दागदार हो गई थी; विपक्ष ने नारा उछाला था-‘गली-गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है।’ इस नारे के शोर में देश के सियासी फलक से राजीव उर्फ मिस्टर क्लीन की छवि कब गायब हो गई, इसका पता 1989 के आम चुनावों के नतीजों से चला। कांग्रेस बुरी तरह हारी थी। अब चोर-नारे की वापसी दिखाई दे रही है। राहुल-विस्फोट से ‘वोट चोरी’ का नारा बवंडर बनने लगा है, क्योंकि मिस्टर क्लीन की भाँति प्रधानमंत्री मोदी की छवि भी ‘न खाऊँगा-न खाने दूँगा’ नारे से निर्मित हुई है। लेकिन, जिस ढंग से उनका नाम अंबानी+अडानी से नत्थी हुआ है, यह कम संगीन मामला नहीं है।

इससे पहले किसी भी प्रधानमंत्री का नाम पूँजीपति के साथ इस तरह नहीं जुड़ा था और न ही ‘वोट चोरी’ का दाग उन पर लगा था। चुनाव आयोग की छवि भी इतनी विवादास्पद नहीं हुई थी। टी.एन. शेषन के नेतृत्व में तो चुनाव आयोग की छवि आदर्श मानी जाती थी। किस्सा पुराना नहीं है। भाजपा प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और कांग्रेस प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शासनकालों में भी आयोग बेदाग रहा है। इंदिरा गांधी व राजीव गांधी के समय में भी आयोग की भूमिका विवादास्पद नहीं थी।

यह सही है कि राज्यों से जाली वोट डालने और मतपेटियों को लूटने की खबरें ज़रूर आती रही हैं। लेकिन, जिस पैमाने पर दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक में वोट-धांधली की घटनाओं का विस्फोट हुआ है, वह निश्चित ही लोकतंत्र, संविधान और आयोग के लिए खतरनाक और डरावना है। इस संकट की स्थिति से संघ परिवार और मोदी+शाह सत्ता प्रतिष्ठान पलायन नहीं कर सकता। उसे चुनाव आयोग के पथ-विचलन की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। जितना जल्दी संकट के बादल छट जाएँ, भारतीय गणतंत्र के भविष्य के लिए उतना ही अच्छा रहेगा। याद रहे, विश्व में लोकतंत्र को जीवंत या मरणासन्न बनाने में वोट-मशीनरी निर्णायक भूमिका निभाती है। जब यह मशीनरी बेईमान बन जाती है, तब लोकतंत्र मरने लगता है। आशा है, भारतीय चुनाव आयोग और न्यायपालिका ऐसा नहीं होने देंगे।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं)