जेएनयू, डीयू, आईआईटी और आईआईएम से निकले “आधुनिक पंडे” जप रहे हैं राम-राम


ऐसा संकीर्ण मत सांप्रदायिक राजनीति करने वाले नेताओं और धार्मिक पंडों का ही नहीं है,बल्कि ज्यादातर बुद्धिजीवियों का भी है। ऐसी सोच जेएनयू, डीयू, आईआईटी, आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित और आधुनिक संस्थानों में पढ़ने और पढ़ाने वालों की है। ईश्वर,धर्म और समाज पर जिस देश की ऐसी सतही सोच हो, उस देश का उत्थान बहुत मुश्किल है।



मेरा एक बहुत प्यारा मित्र है। मित्र तो प्यारे ही होते हैं। 20 साल पहले उसने एक नेता से कहा कि आप लोग बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करते-करते राम का विरोध क्यों करने लगते हैं? आगे उसने पूछा कि क्या आपको लगता है कि राम और गंगा का विरोध करके इस देश में राजनीति हो सकती है? मेरे मित्र का मानना था और आज भी यही मानना है कि राम और गंगा का विरोध करके देश में राजनीति नहीं हो सकती है। मैं भी ऐसा ही मानता हूं। हमारा देश अभी इतना समझदार नहीं हुआ है कि धर्म और ईश्वर का तार्किक विरोध करने वालों को शासन का अधिकार दे। और यह बात राम ही नहीं सभी ताकतवर भगवानों के संदर्भ में लागू होती है। परशुराम के संदर्भ में भी।

लेकिन यह संकट नेताओं का संकट है। विरोध करना उनके लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। हम उनसे यह उम्मीद और मांग कर सकते हैं कि वो धार्मिक कट्टरता, सामाजिक जड़ता और अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं दें। लेकिन एक पढ़े लिखे और बौद्धिक चेतना वाले व्यक्ति का यह संकट कतई नहीं है। उसका तो यह दायित्व बनता है कि वो लगातार सड़ी-गली मान्यताओं, कथाओं, चरित्रों, मतों और व्यवस्थाओं को चुनौती देता रहे। अतीत में कुछ गलत हुआ है तो उस पर सवाल उठाता रहे। चाहे वह धर्म हो, समाज हो या फिर इतिहास। इंसान के अधिकार, बराबरी के अधिकार और बोलने की आजादी के पक्ष में लड़ता रहे। इसलिए जब कोई बुद्धिजीवी नेताओं जैसा तर्क देता है और धर्म, ईश्वर और समाज की बुराइयों के पक्ष में दलील खड़ा करता है तो उसके तीन अर्थ निकलते हैं। पहला-उसकी समझ कमजोर है, दूसरा-वह धर्म का लाभार्थी है या फिर तीसरा-वह सत्ता के खेल में शामिल हैं।

इसे और सही ढंग से समझने के लिए हम भगवान राम को ही केंद्र में रखते हैं। हिंदू धर्म के मठाधीश दावे से कहते हैं कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ था। वो सारी घटनाओं का “ऐतिहासिक साक्ष्य” प्रस्तुत करते हैं। उनकी नजर में ये कल्पना नहीं हकीकत है। इतिहास है। जब आप इसे हकीकत मानते हुए, इतिहास समझते हुए कहते हैं कि इस आधार पर जो पुराना दस्तावेज है उसे सच मानना चाहिए।
मतलब वाल्मीकि रामायण में दर्ज घटनाओं को सच मानते हुए जब आप पूछते हैं कि ऐसा भगवान कैसे हो सकता है जो छल करे, पत्नी को संपत्ति समझे, जो दलितों, शोषितों के हक में लड़ने की जगह उनका गला काट दे? ऐसा धर्म कैसे हो सकता है जो इंसान और इंसान में भेद करे? तो वो कहते हैं कि यह कल्पना है और इस कल्पना में राम का चरित्र प्रवाहमान और प्रगतिशील है। वाल्मीकि रामायण में ये घटनाएं दर्ज हैं, लेकिन तुलसी के रामचरित मानस में ऋषि शंबूक का प्रसंग नहीं है।

वो ये भी कहते हैं कि बहुत से लेखकों ने अपने हिसाब से राम का चरित्र गढ़ा है। मतलब राजा राम की कथा में उस दौर के धर्म और संबंधित लेखक के विचारों की झलक मिलती है। उनके इस तर्क के मुताबिक राम पवित्र हैं और उनके चरित्र में जो भी दोष हैं वो उस दौर के समाज और धर्म के दोष हैं। यह सुन कर जब आप पूछते हैं कि ऐसी बुराइयां तो आज भी समाज में मौजूद हैं। 

आज भी राजनीति और समाज में पाखंड, छल-कपट कायम है। आज भी औरतों की स्थिति खराब है। आज भी दलित, आदिवासी और पिछड़े बराबरी के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आज भी धर्म को परिभाषित करने का अधिकार एक खास तबके के पास सीमित है। और इन बुराइयों को दूर करने के लिए धर्म और ईश्वर दोनों को चुनौती देने की जरूरत है तो कहते हैं कि ऐसा करना गुनाह है। आस्था पर सवाल नहीं उठाना चाहिए।

मतलब उन्हें सवाल किसी भी रूप में स्वीकार नहीं हैं। अगर आप इतिहास मान कर सवाल उठाते हैं तब भी नहीं। आप धार्मिक पौराणिक गाथा मान कर सवाल उठाते हैं तब भी नहीं। कितनी अजीब बात है। सड़ी-गली धार्मिक गाथाओं, मान्यताओं को उनके उसी रूप में स्वीकार करो और ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हें धर्म और ईश्वर निंदा का अपराधी घोषित किया जाएगा।

ऐसा संकीर्ण मत सांप्रदायिक राजनीति करने वाले नेताओं और धार्मिक पंडों का ही नहीं है, बल्कि ज्यादातर बुद्धिजीवियों का भी है। ऐसी सोच जेएनयू,डीयू,आईआईटी,आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित और आधुनिक संस्थानों में पढ़ने और पढ़ाने वालों की है। ईश्वर, धर्म और समाज को लेकर जिस देश के बुद्धिजीवियों की ऐसी सतही सोच हो, उस देश का उत्थान तो बहुत मुश्किल है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)