यदि वेपा श्याम राव उर्फ़ स्वामी अग्निवेश ढर्रावादी संत रहते तो क्या उन पर तर्कसंगत टिप्पणी करने की आज ज़रूरत होती ? बिल्कुल नहीं। केवल उनका महिमा मंडन होता। स्तुति गान होता। सही परिप्रेक्ष्य में उनकी बहु आयामी भूमिका को परखने की ज़रूरत इसलिए महसूस हो रही है क्योंकि स्वामी जी ने अपने जीवन के 81 बरस के सफ़र में कई वर्जनाओं का अतिक्रमण किया है ; संपन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि का मोह त्यागा ; ब्राह्मणवादी संस्कारों को तिलांजलि दी ; कोलकता से प्राप्त व्यावसायिक शिक्षा व अध्यापन उपलब्धियों का पिंडदान किया ; गृहस्थ जीवन के मोहबंधन से मुक्त हो कर हरियाणा में आर्यसमाजी संन्यासी चोला धारण किया।
आर्य समाज को यथास्थिवाद से मुक्त करा कर क्रांतिकारी संगठन में बदलने की कोशिश की ; वैदिक समाजवाद का नारा लगाया और 19वीं सदी के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती व द्वंदात्मक भौतिक समाजवाद के प्रणेता कार्ल मार्क्स को जीवन पर्यन्त साथ लेकर चले ; संन्यासी के साथ साथ सामाजिक एक्टिविस्ट और राजनीतिक कर्मी रहे व शिक्षा मंत्री भी बने। 1981 में बहुचर्चित बंधुवा मुक्तिमोर्चा की स्थापना की और अंतिम सांस तक उसके अध्यक्ष रहे। ज़ाहिर है, इतने लम्बे -टेढ़े-मेढ़े सफ़र में स्वामी अग्निवेश बिल्कुल ही सपाट-सीधे चलते रहे होंगे, यह निष्कर्ष भी अस्वाभाविक रहेगा। स्वामीजी अपने पथ पर संकल्पबद्ध -प्रतिबद्ध हो कर चलते रहे, भटकाव के शिकार भी हुए, फिसले भी, फिर उठे और चले।
श्याम राव का जन्म संयुक्त आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) के श्रीकाकुलम जिले में हुआ था। इसके बाद वे छत्तीसगढ़ चले गए जहां उनके नाना एक रियासत के दीवान थे। उच्च पढ़ाई कोलकाता के संत ज़ेवियर में पूरी हुई। उनके समकालीन थे पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी। बल्कि अध्ययन के दौरान प्रणब जी के ‘आइडियल ‘थे अग्निवेश क्योंकि वे शुरू से ही प्रखर वक्ता थे और चारों तरफ उनकी धाक ज़मी हुई थी।
याद रहे, छठे दशक के अंतिम वर्षों का काल कोलकता के लिए राजनीतिक संक्रांति का समय भी था; विद्यार्थी आंदोलन का विस्फोट हो चूका था; 1967 में कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी ) में फूट हो चुकी थी; सशस्त्र कृषि क्रांति उर्फ़ नक्सलबाड़ी आंदोलन का विस्फोट हो चुका था; कांग्रेस में आंतरिक उथलपुथल शुरू हो चुकी थी; कांग्रेस के दक्षिण पंथी महंत नेताओं ( निजलिंगप्पा, अतुल्य घोष, एसके पाटिल आदि ) के नेतृत्व को इंदिरा गांधी ललकार रही थी। ऐसी पृष्ठभूमि में वेपा श्याम राव अपनी चेतना यात्रा पर निकलने की तैयारी कर रहे थे, जिसका अगला पड़ाव था संन्यास।
उन दिनों पंजाब से अलग होकर हरियाणा नया-नया प्रदेश बना था। मुख्यमंत्री बंसीलाल का ज़माना था। वे तीसरे मुख्यमंत्री थे प्रदेश के। सख्त मिज़ाज़ कुछ कुछ तानाशाही प्रवृति के। इंदिरा गाधी परिवार के चहेते। प्रदेश का विकास किसी भी कीमत पर किया जाए, यह उनका एजेंडा था। ऐसे दौर में प्रो. श्याम राव से संन्यास आश्रम में दीक्षा लेना अनोखी न सही, बड़ी बात ज़रूर थी। उनके साथ तीन अन्य युवाओं ने भी संन्यास धर्म को धारण किया। चार युवाओं की चौकड़ी ने हरियाणा में सामाजिक सुधार का तूफ़ान खड़ा कर दिया था। चारों में वरिष्ठ थे स्वामी इन्द्रवेश। कमज़ोर जाट परिवार से थे लेकिन बेहद सरल, आत्मीय और लोकप्रिय व्यक्तित्व के धनी थे।
यहां यह जान लेना ज़रूरी है कि उत्तर -पश्चिम भारत में आर्यसमाज की बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध से ही पंजाब में गहरी पैठ रही है। यहाँ तक कि शहीद भगत सिंह का परिवार भी सिख रहते हुए भी आर्यसमाजी था। आर्य समाज ने सामाजिक सुधार ( जाति विरोधी आंदोलन , स्त्री शिक्षा , विधवा विवाह , अंधविश्वास विरोधी आंदोलन, मूर्तिपूजा का विरोध और वैदिक धर्म का प्रचार आदि ) के अनेक कार्यक्रम चलाये थे। आज़ादी के बाद भी ग्रेटर पंजाब में यह पंथ सक्रीय रहा। स्वतंत्र भारत में पंजाब विभाजन और हरियाणा राज्य के जन्म से ही आर्यसमाज जाटों में भी काफी सक्रीय हो गया। चूंकि हरियाणा मूलतः कृषि अर्थ व्यवस्था का राज्य रहा है , जाट समाज भी कृषि आधारित रहा है इसलिए आर्यसमाज आसानी से लोकप्रिय हो सका। इसके साथ ही पंजाबी हिन्दुओं या विस्थापित हिन्दुओं के बीच भी इसकी लोकप्रियता कम नहीं थी।
स्वामी इंद्रवेश और अग्निवेश के नेतृत्व में इस चौकड़ी ने प्रदेश भर में सामाजिक सुधार का अलख जगा दिया। नशाबंदी का आंदोलन चलाया। कर्मकांड और अंधविश्वास के विरुद्ध प्रचार किया। गुरुकुल शिक्षा और आधुनिकीकरण के लिए आवाज़ उठाई। बंसीलाल सरकार से सीधी टक्कर ली। जेल यात्रायें कीं। इस तरह यह चौकड़ी अखबारी सुर्खियां बटोरन ने लगी। चारों में तेज़तर्रार थे स्वामी अग्निवेश। दक्षिण भारतीय होने के बावजूद उनकी हिंदी व बंगला पर पुख्ता पकड़ थी। मातृभाषा तेलुगू और अंग्रेजी में पैठ रखना स्वामी जी के लिए स्वाभाविक था। लेकिन बड़ी बात यह थी कि वे प्रखर वक्ता थे और अभिव्यक्ति की नफीस शैली से समृद्ध थे। ग्रामीण जनता के बीच वे जितना सहज थे, उतना ही बहुमुखी शहरी वर्ग के साथ भी।
इस चौकड़ी ने राजनीतिक दल ‘आर्य सभा‘भी बनाया। चुनाव भी लड़े और जीते भी। स्वयं अग्निवेश ने 1977 में विधानसभा का चुनाव लड़ा था और जीत कर शिक्षा मंत्री भी बने। इसी प्रकार 1980 के आम चुनावों में इंद्रवेश ने लोकसभा का चुनाव जीता था। चूंकि 1970 में यह लेखक समाचार भारती में था इसलिए इसकी गतिविधियों को कवर भी किया और इसके कार्यकलापों को देखने का मौक़ा भी मिला। 1972 से तो इसे करीब से भी जाना।
स्वामी अग्निवेश मूलतः एक बेचैन आत्मा थे। उनमें बेहद उतावलापन था। वे झटपट सबकुछ कर डालना चाहते थे। वे महत्वाकांक्षी थे और प्रचार प्रिय भी। लेकिन उनकी चिंता के केंद्र में गांधी का ‘अंतिम व्यक्ति ‘ हमेशा रहता था। इसीलिए वे वैदिक समाजवाद के सन्दर्भ में मार्क्स का ज़रूर उल्लेख किया करते थे।एक सभा में उन्होंने मार्क्सवादी पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी को बुला रखा था। मंच पर यह लेखक भी था। स्वामीजी ने कॉमरेड सीताराम येचुरी से कहा कि ‘आप हम लोगों के बीच संकोच न करें। ऊपर देखिये, स्वामी दयानन्द सरस्वती के साथ साथ कार्ल मार्क्स का भी चित्र है।”
येचुरी ने ऊपर देखा और सहज हो गए। उन्होंने दो पत्रिकाएं – राजधर्म और क्रांतिधर्मी भी निकालीं और इस लेखक से सम्पादकीय सहयोग देने के लिए कहा। सम्पादन के लिए जयपुर से एक साथी को भिजवाया भी गया। इस लेखक की वैचारिक पृष्ठभूमि से भलीभांति परिचित रहने के बावजूद स्वामी अग्निवेश ने पत्रिका के पैने प्रगतिशील तेवर बनाये रखने की पूरी आज़ादी दी। हिंसा को छोड़ विभिन्न तरीकों से मार्क्सवाद- समाजवाद का प्रचार भी किया। वामपंथी लेखकों को छापा भी।
स्वामी जी का मानना था कि भारत का मानस एक झटके में भौतिक समाजवाद को स्वीकार नहीं करेगा। यह जातियों और धर्मों में विभाजित है। भावुक और आस्थावादी है। अतः समाजवाद को स्वदेशी शैली से लाया जा सकेगा। इसलिए प्रचार में भारतीय नायकों , प्रतीकों , उपमाओं और कथाओं का सहारा लिया जाना चाहिए। आर्यसमाज आंदोलन का कायाकल्प करने के लिए स्वामीजी ने आर्यप्रतिनिधि सभा का चुनाव भी लड़ा। उसज़माने में कट्टर दक्षिण पंथियों के नेतृत्व में आर्य समाज का आंदोलन था। दिल्ली के जनसंघ समर्थक व सांसद लाला रामगोपाल शालवाले शक्तिशाली नेता हुआ करते थे। निःसंदेह अग्निवेश के नेतृत्व में यह चौकड़ी परम्परागत नेतृत्व से टकराती रही।
1973 में इस लेखक की साप्ताहिक हिन्दुस्तान में विमर्शात्मक आवरण कथा – “क्या भारतीय खेतिहर श्रमिक अर्द्ध दास हैं या स्वतंत्र श्रमिक ? “प्रकाशित हुई थी। स्वामी जी इस कथा की विषय वस्तु को ज़मीन पर क्रियात्मक आधार देना चाहते थे। करीब आठ वर्ष बाद 1981 में यही विषय वस्तु ‘बंधुवा मुक्ति मोर्चा ‘की आधार भी बनी। अग्निवेश इस मोर्चा के आजन्म अध्यक्ष रहे और यह लेखक इसका 1983 के अंत तक संस्थापक महासचिव रहा। स्वामी अग्निवेश की आधारभूत ज़मीन 19 वीं सदी के प्रगतिशील समाज सुधार आंदोलन की थी, 20 वीं सदी के मध्य आते आते यह कुंद हो गया और फिर रूढ़िवाद की चपेट में आ गया ।
इसके पतन के कई कारणों में से एक प्रमुख कारण यह भी रहा कि इसका नेतृत्व सवर्णवाद से कभी मुक्त नहीं हो सका। सर्वत्र सवर्ण जाति के ही लोग शिखर पर कब्ज़ा किए रहे। इसके साथ दलित, आदिवासी और पिछड़े जुड़ नहीं सके। जाट समाज में भी यह आधारभूत बदलाव नहीं ला सका । खाप पंचायतों के दबदबे को तोड़ नहीं सका । स्त्रियों की दुर्दशा यथावत रही। ऐसी संस्था में ‘रेडिकल चेंज ‘ लाना स्वामी अग्निवेश और उनके साथियों के लिए ‘भगीरथ चुनौती ‘ थी।
हमें यह भी याद रखना होगा कि उत्तरभारत , विशेषरूप से हिंदी भाषी भारत, में सामाजिक सुधार नगण्य रहा है। बीती सदी में दक्षिण भारत, विशेषतः तमिलनाडु में ई ।वी । रामासामी पेरियार , केरल में नारायण गुरु, पश्चिम भारत में फुले दम्पति जैसे लोगों ने सामाजिक क्रांति की दीर्घ जीवी ज़मीन तैयार की। सवर्ण वर्ग विशेषरूप से ब्राह्मण वर्ग के परम्परागत नेतृत्व वृत्त को निर्णायक चुनौती दी। 1967 के बाद से इससमय तक न कांग्रेस सत्ता में आई और न ही कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री बन सका है। अंतिम ब्राह्मण मुख्यमंत्री कांग्रेस का भक्तवत्स्लम था। अपवाद स्वरुप अन्ना द्रमुक की नेता और सी. रामचंद्रन की अंतरंग साथी रहने के कारण जयललिता मुख्यमंत्री बन सकीं । लेकिन, सामाजिक -आर्थिक -राजनीतिक यथार्थ यह है कि पिछड़ों ने ब्राह्मण -वर्चस्व को ध्वस्त कर दिया है।
केरल की भी कमोबेस समान स्थिति है। हिंदी भारत में स्वामी सहजानंद ने ज़रूर सामाजिक क्रांति की पहल की थी। स्वतंत्रता पूर्व भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में वे काफी सक्रीय भी रहे। उन्होंने किसानों और खेतिहर श्रमिकों पर विशेष ध्यान दिया था। उन्हें आज़ादी के आंदोलन से जोड़ा भी था । लेकिन, सही अर्थों में सामाजिक क्रांति हाशिये पर ही रही है। सारांश में सामाजिक सुधार के नाम पर हिंदी भाषी भारत ‘बंजर ‘ ही रहा है।
ऐसे में इस क्षेत्र को अग्निवेश और उनके साथियों से क्रांतिकारी भूमिका की उम्मीद थी जिसमें वे सफल नहीं हो सके। अलबत्ता अलख ज़रूर जगा दिया है। वास्तव में हिंदी भारत की संरचना इतनी जटिल व विविध है जिसे आसानी से समझा नहीं जा सकता है। वस्तुस्थिति का अति सरलीकरण बहुत हुआ है। यहां तक कि संसदीय वाम शक्तियां भी ठेठ हिंदी भारत में अपने दम पर कभी सत्ता में नहीं आ सकीं। अलबत्ता बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कतिपय क्षेत्रों में इनका प्रभाव ज़रूर रहा है। राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ अंचलों में इनकी उपस्थिति दर्ज़ हो सकी । ऐसे में अग्निवेश की आर्यसभा से अपेक्षा रखना स्वयं को भ्रमित करने के समान था।
स्वामी अग्निवेश अपने बहु आयामी आंदोलन के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती, विवेकानंद के भौतिकवादी पक्ष , महात्मा गांधी , कार्ल मार्क्स और डॉ. आंबेडकर ( जीवन के उत्तरार्द्ध में ) के सम्मिश्रण से आध्यात्मिक -भौतिक रसायन का शस्त्र तैयार करने का प्रयोग कर रहे थे। इसलिए जहां उन्होंने विभिन्न धार्मिक समुदायों के उदारवादी नेताओं के साथ समीपी सम्बन्ध रखे और राष्ट्रीय व वैश्विक स्तरों पर साम्प्रदायिक एकता के प्रयास किए , वहीं संसदीय और संसदेतर वामपंथियों के साथ भी निकट के सम्बन्ध रखे। माओवादियों को मुख्यधारा में लाने के विवादास्पद प्रयास भी किए। इन प्रयासों में वे संदेहास्पद भी बने और उन पर सरकार का कथित गुप्त मित्र होने का आरोप भी लगा।
अग्निवेश ने स्वयं अपनी पुस्तक ‘व्यावहारिक आध्यत्मिकता ‘ (एप्लाइड स्पिरिचुअलिटी ) में नक्सलबाड़ी आंदोलन के साथ अपने संबंधों का विस्तार से खुलासा किया है जिसमें तत्कालीन गृहमंत्री चिदंबरम के विवादास्पद पात्र का भी उल्लेख है। स्वामीजी स्वीकार करते हैं कि राज्य अपनी सैन्य और संसदीय शक्ति से आदिवासी उभार को कुचल नहीं सकता। अग्निवेश यह भी स्वीकार करते हैं कि उनकी कोशिश उन्होंने सरकार और माओवादियों की बातों पर विश्वास किया था। दोनों पक्षों के असली इरादे क्या थे, इसे जानने का प्रयास नहीं किया । “मैं यह जानता था कि दोनों पक्षों की हिंसा से कोई समाधान नहीं होगा। एक दिन दोनों को ही संवाद की टेबल पर आना होगा “, स्वामीजी का यह मत रहा है।
स्वामीजी में नानाविधी आंदोलन समाये हुए थे। वे संघर्ष के पुंज थे ; जहां उन्होंने 1987 में राजस्थान की घटना सती देवराला के खिलाफ दिल्ली से जयपुर तक की पदयात्रा निकाली , वहीँ ईंट -भट्टा मज़दूरों के दारुण जीवन को लेकर आला अदालत के दरवाज़े भी खटखटाये और जेनेवा में मानवाधिकार का मुद्दा भी उठाया। कभी चैन से नहीं बैठे। व्याकुल आत्मा बनकर देश -विदेश भटकते रहे।
दरअसल , स्वामी जी दक्षिण अमेरिका के विभिन्न देशों में एक समय प्रभावशाली रही धर्म की क्रांतिकारी भूमिका का प्रयोग भारत में भी करना चाहते थे। लातिनी देशों से अमेरिकी साम्राज्यवाद को समाप्त करने के लिए चर्च ने भी हस्तक्षेप किया। ब्राज़ील के पाउलो फ्रेरे एक क्रांतिकारी शिक्षा शास्त्री होने के साथ साथ पादरी भी थे। उन्होंने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘उत्तपीड़ितों का शिक्षाशास्त्र ‘ के माध्यम से दक्षिण अमेरिका के शिक्षा क्षेत्र में क्रांति पैदा करदी थी और लिबरेशन थिओलोजी के एक्टिविस्टों पर उसका बड़ा प्रभाव पड़ा था।चर्च के पादरी लोग मुक्ति संघर्ष में उतरे भी थे। ब्राज़ील के आर्च बिशप हेल्डर कामरा ने ‘लिबरेशन थिओलॉजी को लोगों में काफी लोकप्रिय भी बनाया था।
वे कहा करते थे “जब मैं गरीबों को खाना देता हूँ तो मुझे संत पुकारा जाता है ; जब मैं उनसे पूछता हूँ कि वे गरीब क्यों हैं तो वे मुझे कम्युनिस्ट कहते हैं।” इन शब्दों को हमेशा याद रखते हुए स्वामी अग्निवेश बन्धक श्रमिकों से गरीबी का कारण भी पूछते थे और उन्हें गरीबी को जन्म व पनपाये रखनेवाली शक्तियों से परिचित भी कराते थे। छठे दशक से शुरू हुई लिबरेशन थिओलोजी और इनके नेताओं पर अमेरिका ने छद्म कम्युनिस्ट होने का आरोप भी लगाया था। सीआईए का कहना था कि ‘वर्ल्ड कौंसिल ऑफ़ चर्चेस में कम्युनिस्ट -केजीबी घुसपैठ कर चुके हैं और अमेरिका के खिलाफ चर्च के माध्यम से लिबरेशन थिओलोजी का प्रयोग कर रहे हैं।
यह लेखक 1983 में अग्रिवेश और इंद्रवेश के साथ पश्चिमी देशों की यात्रा पर गया हुआ था। फ्रैंकफुर्ट से दिल्ली लौटते समय विमान में दिल्ली के एक बिशप संतराम टकरा गए। वे वर्ल्ड कौंसिल ऑफ़ चर्चेस की मीटिंग में भाग लेकर लौट रहे थे। उन्होंने बताया कि किस प्रकार अमेरिका थिओलोजी और कौंसिल के कामों को बदनाम कर रहा है। पूंजीवाद के दबदबे का अंत करने और उत्तपीड़ितों -गरीबों के पक्ष में बोलनेवालों को कम्युनिस्ट व केजीबी का एजेंट बतलाया जा रहा है। ज़ाहिर है स्वामीजी इस सच्चाई से परिचित थे। इसलिए वे सतर्कता के साथ क़दम रखते थे।
भारत में इसका प्रयोग कितना सफल रह सकता है, यह विवाद का विषय है क्योंकि हिन्दू धर्म मूलतः सामाजिक श्रेणीतंत्र पर टिका हुआ है। जाति तंत्र इसके पाए हैं। संक्षेप में, धर्म पर सवर्ण वर्ग का आधिपत्य है, दलित अंतिम पायदान पर हैं। हिन्दू धर्म की धार्मिक संस्थाओं में धर्म व मंदिर के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि पैदा की जाती है, इसमें संदेह है। इसके विपरीत ईसाई सेमिनारियों में आलोचनात्मक -विवेचनात्मक दृष्टिकोण के लिए स्पेस है।
निजी अनुभवों के आधार पर यह लेखक जानता है कि किस प्रकार ईसाई संस्थाओं में चर्च की भूमिका को लेकर बहस होती है। इतिहास, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र से भी पादरियों को परिचित कराया जाता है। क्या कोई हिन्दू पुजारी इन अनुशासनों से परिचित रहता है? यह एक खुला सवाल है ? इसलिए स्वामीजी लिबरेशन थिओलोजी का स्वदेशी संस्करण तैयार करने में कितने सफल रहते, इसमें संदेह है। उनकी कर्म -यात्रा संदेह की पुष्टि करती है।
लेकिन, उनका पश्चिम की लोकतान्त्रिक नैतिकता, उदारता , तर्क संगत दृष्टिकोण , वैज्ञानिक मानस व आलोचनात्मक चिंतन और मानवतावाद -मानवाधिकारवाद के प्रति गहरा रुझान ज़रूर था। यूरोप की फंडिंग एजेंसीज के साथ भी उनके अच्छे सम्बन्ध थे। इस लेखक ने स्वयं दोनों स्वामियों के साथ ब्रिटेन, जर्मनी, नीदरलैंड जैसे देशों की यात्रा के दौरान उनके प्रभाव को देखा था। विश्व की कतिपय संस्थाओं के साथ भी वे जुड़े हुए थे। पुरस्कारों से उनका सम्मान भी किया गया। विदेशी वित्तीय सहायता से ‘बंधुआ मुक्ति ‘ की नीति गलत है।
यूरोप से लौटने के बाद इस लेखक ने उनके साथ सैद्धांतिक मतभेद हो जाने के कारण महामंत्री और मुक्ति प्रतिष्ठान से इस्तीफ़ा दिया था। उत्तराधिकारी के रूप में 1984 में कैलाश सत्यार्थी ने पद सम्हाला था जिन्हें 2015 में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ। स्वामीजी में भी मानवगत कमजोरियां थीं; शिष्य सत्यार्थी को नोबल से नवाज़े जाने से स्वामी जी बुरी तरह से आहत भी हुए। वे अपनी इस पीड़ा से लम्बे समय तक उबर नहीं सके थे। दोनों के बीच सम्पति को लेकर भी मुक़दमेबाज़ी रही है। बंधुवा मुक्ति मोर्चा से अलग होने बाद कैलाश सत्यार्थी ने ‘बचपन बचाओ आंदोलन‘ शुरू कर दिया और देश-विदेश के कॉर्पोरटे सेक्टर से मदद लेने लगे।
15 -16 साल पहले उन्होंने इस लेखक से कहा भी था कि ऐसे आंदोलन को दीर्घ जीवी बनाने के लिए कॉर्पोरट हाउसों से आर्थिक मदद लेनी होगी। इसके लिए उन्होंने दिल्ली के सीरी फोर्ट में एकभव्य आयोजन भी किया था। सभागार कॉर्पोरेट विज्ञापनों से सजा हुआ था।इस दृष्टि से सत्यार्थी हमेशा ‘दुविधा मुक्त ‘ रहे हैं। लेकिन विश्व में गुणात्मक बदलाव के लिए बहुआयामी अभियान चलाया जाए , इसका जुनून स्वामी जी ने ही जीवन पर्यन्त बनाये रखा और कटटर दक्षिणपंथी घातक हमलों को झेल कर इसकी कीमत भी चुकाई है।
यह भी सच है कि स्वामी अग्निवेश का पश्चिम से धीरे धीरे ‘मोह भंग ‘ भी होने लगा था। वे पश्चिमी शक्तियों के ‘सेलेक्टिव हस्तक्षेप ‘ और विश्व व्यापार संगठन के व्यवहार की आलोचना करने लगे थे। उनका मानना था कि पूंजीवादी देश मानवाधिकार, बंधुआ श्रमिक, बेगार श्रमिक और बाल -किशोर श्रमिक के मुद्दों पर ईमानदार नहीं रहे हैं। पश्चिमी देश बुनियादी सवालों से नज़रें बचा रहे हैं। पुस्तक ‘व्यावहारिक आध्यात्मिकता ‘में स्वामीजी ने पूंजीवादी देशों और विश्व व्यापर संगठन की भूमिकाओं की तीखी आलोचना की है। स्वामीजी का मोहभंग ज़रूर हुआ लेकिन देर से। वास्तव में तीसरी दुनिया के देशों में गैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) का रोल उभरते व्यवस्था या राज्य या पूंजीवादी विरोधी अंतर्विरोधों का समाधान नहीं, शमन करना रहा है।
संक्षेप में, पश्चिम व अमेरिका स्थित वित्तीय एजेंसीज इन संस्थाओं से ‘दमकल ‘ का काम लेती हैं। क्रांति को अवरुद्ध करती हैं। यथास्थितिवाद को पनपाती हैं। 1983 में प्रकाशित ‘आदमी ,बैल और सपने ‘ में यह लेखक इस मुद्दे पर विस्तार से लिख चुका है और स्वामीजी के साथ गंभीर मतभेद होने का एक बड़ा कारण यह भी था। हालाँकि उन्होंने पिछले वर्ष इस लेखक से बंधुआ मुक्ति मोर्चा का ‘कार्यकारी अध्यक्ष ‘ बनने के लिए कई बार आग्रह भी किया था । सैद्धांतिक मतभेद रहने के बावजूद वे एक बार फिर प्रयोग करना चाहते थे। यह उनका बड़प्पन था , उनकी उदारता थी।
वास्तव में , बंधुआ मुक्ति अभियान में ठहराव आने लगा था। बंधुआ के रूप बदल चुके थे। 1975 में इंद्रा गाँधी ने अपने बीस सूत्री कार्यक्रम का इसे बनाया था। क़ानून बनाया गया। लेकिन 21वीं सदी आते आते शहरी बंधक श्रमिकों की आबादी तेज़ी से बढ़ने लगी थी। इसका मुख्य कारण था शहरीकरण की रफ़्तार तेज़ होना; निर्माण कार्यों का फैलना, ठेके की प्रथा को अपनाना आदि। स्वामीजी इस समस्या को ‘न्यूनतम मज़दूरी ‘ से जोड़ना चाहते थे। उनकी नज़र में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को प्रतिमास 15 से 20 हज़ार रु। देना ही इस बर्बर समस्या का समाधान है।
इसे लेकर उन्होंने सेमिनार और चौपालों का आयोजन भी किया। सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश भी। अदालत के दरवाज़े खटखटाये। मोर्चा का विस्तार करना चाहते थे। लेकिन , स्वामीजी कुशल संगठनकर्ता नहीं रहे। उनके साथ प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की टीम का अभाव रहा। अधिकांश लोग भक्ति-भाव से आया करते थे। स्वामी जी 1981 से लेकर अंतिम समय तक मोर्चा के अध्यक्ष रहे। महामंत्री बदलते रहे। कुछ मुक्त बंधक श्रमिकों को उठाने का प्रयास ज़रूर किया था। वे पुनर्वासित भी किये गए। लेकिन, यह कार्यक्रम संगठित अभियान की शक्ल नहीं ले सका।
निःसंदेह स्वामी जी अपने अंतिम दिनों में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों , प्रवासी श्रमिकों ,न्यूनतम मज़दूरी , सामाजिक धार्मिक ध्रुवीकरण , फासीवाद , संस्थाओं के पतन जैसे मुद्दों से काफी चिंतित रहने लगे थे। पर अग्निवेश जी सबसे बड़ी समस्या वे स्वयं थे। वे किसी काम में स्थिर नहीं रह पाते थे। निधन से कुछ समय पहले उन्होंने ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का अभियान चलाने की भी कोशिश की। कुछ विचार – बैठकें भी कीं।कुछ लोगों ने स्वामीजी से यह भी कहा कि इससे भ्रम फ़ैल सकता है। इसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की गंध आ सकती है। लेकिन यह कार्यक्रम गति नहीं पकड़ पाया। अधर में ही रहा।
उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी थी। संसद में पहुंचकर वे अंतिम इंसान की आवाज़ को उठाना चाहते थे। इसलिए वे कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों के बीच आवाजाही करते रहे। इससे उनकी छवि को धक्का भी लगा था। अविश्वनीय बनने लगे थे। लेकिन थे वे अथक कर्मठ। विपदाओं – बाधाओं के मध्य निडर व अविजित। उनके निधन से फासीवादी , पाखंडवादी , अन्धविश्वासवादी और मध्ययुगीनवादी शक्तियों को ‘उत्सव‘ मनाने का सुनहरा अवसर ज़रूर मिल गया है। बावजूद इसके ज्ञात -अज्ञात मुक्तिकामियों की संघर्ष यात्रा भी जारी रहेगी, हाथ में मुक्ति का परचम लिए नए अग्निवेश सामने आएं दिखाई देंगे !
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और बंधुआ मुक्ति मोर्चा के संस्थापक महासचिव रहे हैं।)