भारतीय हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव महज भविष्य की चिंता नहीं रह गया है, बल्कि यह वर्तमान की एक गंभीर चुनौती बन गया है। हिमालय क्षेत्र न केवल भारत की जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह देश के लाखों लोगों की आजीविका और जल स्रोतों का आधार भी है।
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बैंगलुरु के जलवायु प्रकोष्ठ द्वारा प्रकाशित एक रपट जलवायु परिवर्तन के मुख्य प्रभावों, उनके सामाजिक-आर्थिक परिणामों, और अनुकूलन रणनीतियों पर गहन दृष्टि प्रदान करती है। रपट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से हिमालयी ज़िलों में तापमान, वर्षा और प्राकृतिक आपदाओं के स्वरूप में बड़े बदलाव देखे जा रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन न केवल पर्यावरण को बल्कि समाज, अर्थव्यवस्था और परिवारों के दैनिक जीवन को गहराई से प्रभावित करता है। भारत में मानसून का बदलता स्वरूप और तीव्र बारिश की घटनाएं कृषि, जल संसाधनों और मानव जीवन पर गंभीर असर डाल रही हैं। रपट इस बात को रेखांकित करती है कि हमारे देश में जो सबसे वंचित और कमज़ोर वर्ग हैं, वे ही इस संकट का सबसे अधिक खामियाजा भुगत रहे हैं।
इस रपट में दिए गए आंकड़े ऐसे जलवायु मॉडलों पर आधारित हैं जो बहुत सटीक जानकारी देते हैं। ये मॉडल भारतीय हिमालय क्षेत्र के लिए 25×25 किलोमीटर के क्षेत्रों के लिए जलवायु अनुमान पेश करते हैं। इन मॉडलों में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) द्वारा तैयार किए गए साझा सामाजिक-आर्थिक मार्गों (SSPs) का उपयोग किया गया है, जो भविष्य की जलवायु परिस्थितियों का अनुमान लगाने में मदद करते हैं।
रपट के अनुसार, वर्ष 2021-2040 के बीच हिमालय क्षेत्र में औसत तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होने की संभावना है। पश्चिमी हिमालयी ज़िलों में यह वृद्धि 1.7 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकती है। तापमान वृद्धि से गर्मियों में ग्रीष्म लहरों की अवधि लंबी होने और उनकी आवृत्ति अधिक होने की संभावना है। यह न केवल पर्यावरण पर, बल्कि कृषि, जल स्रोतों और मानव स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा।
हिमालयी सर्दियों में अब लंबे शुष्क काल देखे जा रहे हैं। सर्दियों के न्यूनतम तापमान में 2.1 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होने की संभावना है, जिससे बर्फ की परत पतली हो सकती है। इसका प्रभाव जलाशयों और कृषि पर पड़ रहा है। जल की कमी के कारण रबी फसलों और पनबिजली उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बर्फ पिघलने पर घराट (पनचक्की) जैसे पारंपरिक साधन अब अनिश्चित हो गए हैं।
ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने के कारण जलाशयों के लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है और हिमनद झील विस्फोट बाढ़ की घटनाएं बढ़ा सकते हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 2023 में सिक्किम की दक्षिण ल्होनक झील में ऐसा ही एक उदाहरण देखने में आया। हिमाचल प्रदेश के बागवान शिकायत करते हैं कि कम पड़ी सर्दियों के कारण सेबों का रंग और गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
जलवायु परिवर्तन हिमालय क्षेत्र की कृषि और आजीविका पर गहरा प्रभाव डाल रहा है। तापमान और वर्षा के असामान्य पैटर्न के कारण पारंपरिक फसल चक्र प्रभावित हो रहा है। उदाहरण के लिए, लद्दाख में खुबानी (एप्रिकॉट) उत्पादन तेज़ी से प्रभावित हो रहा है, और कुछ क्षेत्रों में नई फसलों की खेती को बढ़ावा मिला है। पश्चिमी हिमालयी ज़िलों में गेहूं और मक्के की पैदावार में कमी दर्ज की जा सकती है, जबकि उच्च तापमान के कारण सेब उत्पादन के लिए उपयुक्त क्षेत्र अधिक ऊंचाई की ओर स्थानांतरित हो रहे हैं।
मौसम की अनियमितता हिमालय क्षेत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है। पश्चिमी हिमालयी ज़िलों में दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान 10-20 फीसदी अधिक वर्षा होगी, जबकि पूर्वी ज़िलों में कमी देखी जा सकती है। भारी बारिश के कारण अचानक बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाएं बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ ने हज़ारों लोगों की जान ली थी और बुनियादी ढांचे को भारी क्षति पहुंचाई थी।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव सबसे अधिक समाज के कमज़ोर वर्गों पर पड़ रहे हैं। गुज्जर जैसे समुदाय, जो अपने मवेशियों के लिए चारागाहों पर निर्भर हैं, अब अधिक दूरी तय करने के लिए मजबूर हैं। जम्मू-कश्मीर के गुज्जर समुदाय की शाहनाज़ अख्तर कहती हैं, “हमारे पारंपरिक प्रवास मार्ग अब बदल गए हैं। अनियमित बारिश और सूखा हमारे लिए बड़ी चुनौती बन गई है, जिससे हमें जल स्रोतों के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है।” मेघालय की रसिन मोहसिना शाह कहती हैं, “गर्मियों में बढ़ती आर्द्रता और बदलते मौसम ने यहां के जलवायु संतुलन को बदल दिया है। अब वह ठंडक महसूस नहीं होती जो पहले होती थी।”
हिमालयी नदियां, जैसे ब्रह्मपुत्र, गंगा और यमुना, इस क्षेत्र की जीवनरेखा हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण इन नदियों के प्रवाह में अस्थिरता देखी जा रही है। जल संसाधन प्रबंधन के लिए स्थानीय जल स्रोतों का संरक्षण और पुनरुद्धार आवश्यक है। बावड़ी और तालाब जैसे पारंपरिक जल स्रोतों का पुनरुद्धार किया जाना चाहिए। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मानसूनी जल को संग्रहित कर सूखे के दौरान उपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा, नदियों के प्रवाह को नियंत्रित करने और उनके किनारों पर पारिस्थितिकी को संरक्षित रखने के लिए प्रभावी नीतियां बनाई जानी चाहिए।
जलवायु परिवर्तन के कारण आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता को देखते हुए प्रभावी आपदा प्रबंधन नीतियां आवश्यक हैं। भूस्खलन, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के लिए सटीक और समय पर चेतावनी प्रणाली विकसित करना एक प्रमुख कदम है। संवेदनशील क्षेत्रों में बुनियादी ढांचों का निर्माण आपदा-रोधी मानकों के अनुसार किया जाना चाहिए। आपदा प्रबंधन में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए, जिससे वे आपदाओं से निपटने के लिए सशक्त बन सकें।