मोदी-योगीराज में विकास वाली भाजपा जाति में फंसी


राजभर समुदाय की कितनी जरूरत सत्ताधारी दल को है, यह प्रधानमंत्री के भाषण से ही जाहिर हो जाती है। उन्होंने 16 फरवरी को दिए गए अपने भाषण में सात बार सुहदेव की यशगाथा का जिक्र किया। यह मामूली बात नहीं है। ऐतिहासिक और राजनीतिक दोनों ही लिहाज से।



लखनऊ। चुनाव जैसे-जैसे पास आ रहा है, वैसे-वैसे जातिगत सियासत भी गर्मा रही है। उसे गरमाने में विपक्ष तो लगा ही है, सत्ता पक्ष भी पीछे नहीं है। वह भी एक-एक सीट पर जातीय समीकरण के हिसाब से काम कर रहा है। सुहेलदेव उसी राजनीति का हिस्सा है।

इसकी शुरूआत 2014 के आम चुनाव में हो गई थी। तभी से भाजपा राजभर समुदाय को साधने में जुटी है। यही कारण है कि 2016 में अमित शाह खुद बहराइच गए थे और मूर्ति का अनावरण किया था। 2019 के आम चुनाव से पहले प्रधानमंत्री ने डाक टिकट जारी किया था।

इस बार स्मारक का दांव चला गया है। इसके जरिए सत्ता पक्ष राजभर समुदाय को लुभाने में लगी है। पहले उसे लगा था कि राजभर समुदाय का मंत्री बनाकर मामला संभाल लेगे। मगर ओम प्रकाश राजभर का उनके समुदाय में जो औरा है, उसके सामने कोई टिक नहीं पाया। तो सत्ता पक्ष का हलकान होना स्वभाविक है।

उसने सोचा था कि कुर्सी, नेता बना देती है। लेकिन सबके साथ ऐसा नहीं होता। 2016 का प्रयोग सफल रहा था। तब पिछड़े वर्ग के नेता को अध्यक्ष बनाकर, सूबे में पिछड़ों को लामबंद कर लिया था। उसमें उस पिछड़े नेता का करिश्मा भी था। मगर राजभर समुदाय वाले मामले में बात नहीं बनी। कुर्सी भी समुदाय का नेता नहीं बना पाई। इससे सत्ता पक्ष के माथे पर शिकन पड़ने लगी। इसकी वजह समुदाय का संख्याबल है।

यह बिरादरी तेरह लोकसभा सीटों को प्रभावित करती है। उन सीटों में देवरिया, मऊ, आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया, बनारस, मिर्जापुर, चंदौली, भदोही, मछलीशहर, लालगंज, जौनपुर और अम्बेडकर नगर शुमार है। यहां इनकी आबादी 12 से 22 फीसदी तक है। इस कारण राजभर मत काफी मायने रखता है। पंचायत चुनाव सिर पर है। उसके बाद विधान सभा चुनाव है।

इनमें राजभर समुदाय की कितनी जरूरत सत्ताधारी दल को है, यह प्रधानमंत्री के भाषण से ही जाहिर हो जाती है। उन्होंने 16 फरवरी को दिए गए अपने भाषण में सात बार सुहदेव की यशगाथा का जिक्र किया। यह मामूली बात नहीं है। ऐतिहासिक और राजनीतिक दोनों ही लिहाज से। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इतिहास लेखन में दलित समाज के महापुरूषों को उपेक्षा का सामना करना पड़ा हैं।

इस लिहाज से देखा जाए तो वामपंथी ही दोषी है क्योंकि लेखन का एकाधिकार तो उनके ही पास रहा है।तो फिर उन्होंने दलित महापुरूषों की उपेक्षा क्यों? यह सवाल उनसे पूछा जाना चाहिए।सवालों की जद में तो लोग भी आते हैं जो दलित राजनीति के रहनुमा है। इस नजरिए से देखे तो सत्ताधारी दल ने इतिहास को संजोने का काम जरूर किया है।

मगर उसमें राजनीति भी है। उससे अलग करके सुहेलदेव स्मारक को नहीं देखा जा सकता। वह इसलिए क्योंकि वह अस्मिता के मुद्दे से जुड़ा है और अस्मिता इतिहास से जुड़ी है।

राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो दलित समुदाय अपने इतिहास को संजोने की कोशिश कर रहा है। जाटव इस मसले काफी आगे है। लेकिन पासी और अन्य दलित जातियां, उसमें पीछे हैं। तो सत्ता पक्ष उस खालीपन को भरने में लगी है ताकि राजभर से खुद को जोड़ सके।



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