गांधी से बहुत डरता है RSS, उनकी तमाम निशानियां मिटा देना चाहती है मोदी सरकार


इस बात का ध्यान करें कि संघी गांधी से बहुत डरते हैं। गांधी पर उनकी मौत के बाद भी उनकी तमाम निशानियां मिटा देना चाहते हैं। यह पराजित होने का संकेत है। संघी आज सत्ता के सहारे मजबूत दिख रहे हैं पर हैं एकदोम कमजोर और कायर। इन्हें हराने की रणनीति होनी चाहिए।


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उत्तर प्रदेश Updated On :

गांधी की हत्या कब तक करेंगे संघी और संघियों खासतौर पर नरेंद्र मोदी, अमित साह और आदित्य योगी उर्फ अजय मोहन सिंह बिष्ट जो खालिस अपराध और असामाजिक तत्वों की अनैतिक दुनिया से आये हैं! महात्मा गांधी की हत्या 1948 में हुई और शायद इतिहास की उस सबसे जघन्य हत्या के राजनैतिक पक्ष को छोड़ दें और सिर्फ कानून की दृष्टि से देंखे तो नाथूराम गोडसे और उसके साथ उस मानवता को सबसे ज्यादा शर्मशार करने वाली हत्या में शामिल तमाम संघी अपराधकर्मियों का कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा ट्रायल हुआ और उन्हें अदालत द्वारा सजा मुकर्रर की गयी।

उस ट्रायल की निष्पक्षता पर कभी किसी ने सवाल नहीं उठाया। पर आज जब गांधी की इन संघियों ने पिछले 9 सालों में दो बार हत्या कर डाली (वैसे उस हत्या का जश्न ये हर वर्ष 30 जनवरी को मनाते हैं) एकबार जब इन्होंने साबरमती आश्रम के ट्रस्टियों (संरक्षकों) और आश्रम के सहवासियों को डरा धमका कर और उनको भ्रष्ट तरीकों से अपने पक्ष में कर साबरमती आश्रम को गुजरात सरकार के मार्फत हड़प लिया और दूसरी बार जब उत्तरप्रदेश की सरकार ने सर्व सेवा संघ को पुलिस के पासविक बल का इस्तेमाल कर पहले खाली करवाया और फिर उसके सारे भवनों को असंवैधानिक और अवैध तरीके से ध्वस्त कर जमींदोज कर दिया।

सर्व सेवा संघ पहले उच्च न्यायालय गयी और उच्च न्यायालय के एकल खंडपीठ के जज माननीय आलोक माथुर ने डीएम को कहा कि वह सर्व सेवा संघ के पंजीकृत विलेखों की जांच करे और फिर कानून सम्मत आदेश पारित करे। यह आदेश भारत की न्यायपालिका में सबसे भ्रष्टतम और निकृष्टतम आदेशों में माना जायेगा। भारत में किस कानून में यह व्यवस्था है कि डीएम पंजीकृत विलेखों की जांच कर कानून सम्मत आदेश पारित कर सकता है?

यह आदेश ही असंवैधानिक और कानून सम्मत नहीं था। माननीय जज आलोक माथुर को उच्च न्यायालय का जज नियुक्त करने से पहले क्या कॉलेजियम ने इनकी डिग्रियों की जांच सही तरीके से करवाई थी?

इन्हें तो दीवानी कानून की बुनियादी समझ नहीं है। अगर ये सरकारी जज हैं तब भी ऐसा वाहियात आदेश पारित नहीं कर सकते और अगर पारित कर दिया तो कॉलेजियम को तत्काल प्रभाव से इन्हें हटा देना चाहिए था। डीएम ने उक्त आदेश के तहत सर्व सेवा संघ की उक्त भूमि पर अवस्थिति को 60-70 सालों के बाद अवैध घोषित कर उसे रेलवे को लौटाने को कहा। रेलवे के अधिकारियों ने दावा किया था कि रेलवे के जिस अधिकारी ने उक्त भूखंड को सर्व सेवा संघ को बेचा था उसे बेचने का अधिकार नहीं था और रेलवे को अपना भूखंड बेचने का अधिकार नहीं है।

रेलवे भारत में 1853 में अंग्रेजों के द्वारा स्थापित की गयी। रेलवे ने किसकी जमीनें ली? जमीनें अगर भूमि अधिग्रहण कानून, 1894 के तहत सरकार ने आम लोगों से ली तो क्या वह उसकी मालिक बन गयी? भूमि अधिग्रहण कानून के तहत जमीनें सिर्फ सार्वजनिक हित के लिए ली जाती है और सरकार उन जमीनों की मालिक नहीं ट्रस्टी यानी संरक्षक होती है। सरकार उन जमीनों को निजी कंपनियों को फैक्ट्री लगाने के लिए दे सकती है जिन्हें सरकारी अनुदान कहते हैं और उसके लिए गर्वनमेंट ग्रांट एक्ट, 1895 था।

सरकार ने उक्त भूखंड को सेना को सरकारी अनुदान दी थी जिससे वह फिर सरकारी अनुदान के रूप में रेलवे के पास आयी और फिर उसी तरह से सरकारी अनुदान के रूप में सर्व सेवा संघ के पास आयी। रेलवे कहती है कि उसकी जमीन का हस्तांतरण नहीं हो सकता था तो सेना को दी गयी सरकारी अनुदान रेलवे को हस्तांतरित नहीं हो सकती थी, सरकार द्वारा आमलोगों की अधिग्रहण की गयी जमीन सेना को हस्तांतरित नहीं हो सकती थी और तब तो आम लोगों की जमीनें भी सरकार नहीं ले सकती थी।

न डीएम को इस कानून से कुछ लेना देना था न उच्च न्यायालय को और ना ही सर्वोच्च न्यायालय को। उच्च न्यायालय को किसी दीवानी कानून से भी कुछ लेना देना नहीं था माननीय न्यायाधीश आलोक माथुर ने अपना नया कानून बनाया था जिसमें डीएम को पंजीकृत विलेखों की “जांच कर” “कानूनी आदेश” पारित करने का अधिकार दिया गया था।

खैर, सर्व सेवा संघ परिसर को डीएम द्वारा गैरकानूनी तरीके से जबरदस्ती खाली करा लिये जाने से पहले सर्व सेवा संघ सर्वोच्च न्यायालय गयी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश माननीय रिषिकेश रॉय ने कहा कि एक दीवानी मामला बनारस के व्यवहार न्यायालय में विचाराधीन है इसलिए वे कोई आदेश नहीं पारित करेंगे और वादी ने उच्च न्यायालय के आदेश को यहाँ चुनौती भी नहीं दी है।

मैंने पहले ही कुछ लोगों को कहा था कि ये न्यायाधीश साहब सर्व सेवा संघ के पक्ष में कोई फैसला नहीं देंगे वे कोई असंवैधानिक और अवैध फैसला ही देंगे। मैंने ऐसा क्यों कहा था यह बाद में बताता हूँ।

डीएम ने उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों के आदेशों का पूरा पालन करते हुए सर्व सेवा संघ के परिसर को सैकड़ों पुलिस बल के अवैध जमावाड़े के साथ सत्ता की पासविक शक्तियाँ इस्तेमाल कर खाली करा लिया।

सर्व सेवा संघ फिर सर्वोच्च न्यायालय गयी जिसका मसला फिर उसी माननीय न्यायाधीश रिषिकेश रॉय की खंडपीठ में लगा। मैंने फिर कहा कि ये महासय सर्व सेवा संघ के पक्ष में कोई आदेश नहीं पारित करेंगे बल्कि फिर कोई असंवैधानिक और अवैध आदेश ही पारित करेंगे। पर जो आदेश उन्होंने पारित किया वह मेरे अनुमान से भी ज्यादा हैरतअंगेज, अवैध और असंवैधानिक था। माननीय न्यायाधीश ने कहा कि डीएम ने जो कुछ किया वह वैसे तो उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं था पर उसने जो भी किया वह माननीय उच्च न्यायालय के आदेश के आलोक में किया इसलिए उसका कोई अपराध नहीं है।

माननीय न्यायाधीश महोदय ने ये नहीं कहा कि उच्च न्यायालय का आदेश अवैध और असंवैधानिक था और डीएम की कारवाई असंवैधानिक और अवैध थी। उन्होंने डीएम को निर्दोष करार दे दिया और उच्च न्यायालय की कोई भर्त्सना नहीं की। वे यहीं नहीं रूके उन्होंने आगे कहा कि अब डीएम ने उच्च न्यायालय के आदेश पर परिसर खाली करा ही लिया तो अब कुछ नहीं किया जा सकता। इस व्यक्ति को जब गौहाटी उच्च न्यायालय का जज बनाया गया तो इसकी डिग्रियों की जांच कॉलेजियम ने ठीक से करवाई थी? इस व्यक्ति ने गौहाटी उच्च न्यायालय में जज रहते कौन से ऐसे आदेश पारित किये थे जिसके आधार पर इन्हें सर्वोच्च न्यायालय का जज बना दिया गया?

क्या कॉलेजियम जिन योग्यताओं पर इन्हें उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का जज बनाया उसे सार्वजनिक करेगी? मुख्य न्यायाधीश कहते हैं भारत की परिस्थितियों में कॉलेजियम सबसे अच्छी व्यवस्था है तो इस व्यवस्था को पारदर्शी बनाईये और आम लोगों को बताईये जिसकी जिंदगियों के फैसले आलोक माथुर और रिषिकेश रॉय जैसे जज करते हैं। उनकी डिग्रियां और योग्यताए सर्वोच्च न्यायालय के वेबसाइट पर सार्वजनिक करें।

सर्वोच्च न्यायालय खुद अपना जज तो नहीं बन सकती। वह यह तो नहीं कह सकती कि हम जजों के बारे में आम लोगों को जानने का हक नहीं है हम जिसे जज बनायेंगे उसके फैसले आम लोगों को मान्य होंगे! अगर ऐसा कहेंगे तो यह तो लोकतंत्र नहीं हो सकता यह तो न्यायालयों और न्यायाधीशों का राजतंत्र हो जायेगा। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कॉलेजियम ने दर्जनों नाकाबिल और भ्रष्ट लोगों को जज बनाया है चाहे खुद से या सरकारी दबाव में।

इन तीनों फैसलों (उच्च न्यायालय का एक और सर्वोच्च न्यायालय के दो) के बाद मेरे मन में यह सवाल पैदा हुआ कि अगर ये दोनों माननीय न्यायाधीश आलोक माथुर और रिषिकेश रॉय गांधीजी की हत्या के समय जज होते और इनकी पीठों में वह मसला जाता तो ये क्या फैसला करते? ये यह कहते कि अब तो गांधीजी की हत्या हो गयी, वे स्वर्ग सीधार गये, यह तो गांधीजी का भाग्य था। महामहिम नाथूराम गोडसे इसी समाज में रह कर सुधर जायेगा फिर किसी गांधी की हत्या नहीं करेगा इसलिए हम उसे बरी करते हैं।

2014 में एक कंपनी मामले में मैं माननीय रिषिकेश रॉय की गौहाटी उच्च न्यायालय की एकल खंडपीठ में हाजिर हुआ। माननीय जज साहब ने पूरी बद्तमीजी से मुझसे कहा इतनी जल्दी क्यों है वकील साहब 2022 में आईये। मुझे उनकी बद्तमीजी पर रोष हो आया और मैंने कहा यह एक वकील से बात करने का कौन सा तरीका है। मैं इस अदालत का एक आफिसर हूँ और मैं आपके समकक्ष हूँ। फिर मैंने उनकी बद्तमीजी की शिकायत गौहाटी उच्च न्यायालय के उस समय के मुख्य न्यायाधीश प्रभारी से की और उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि उस मसले को उनकी एकल खंडपीठ से हटा लेंगे। उन्होंने अपने आश्वासन पर अमल किया और अंत में उस मसले के माननीय न्यायाधीश उज्जल भुयां ने, जो अभी सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं, सुना और मेरे पक्ष में 2016 में फैसला सुनाया। मैंने उनका फैसला पढ़ कर कहा था कि वे सर्वोच्च न्यायालय जाने लायक हैं।

मैंने अपनी ये कहानी इसलिए बताई ताकि आप निराश न हो। न्यायपालिका जितनी आप समझते हैं उससे ज्यादा खराब है। इसी में उज्जल भुयां जैसे माननीय जज भी हैं जिसने आपको सही फैसला मिल सकता है पर यह अभी नहीं होगा। मैं आपको निराश नहीं कर रहा हूँ। मैं सिर्फ समय और रणनीति बता रहा हूँ। अभी अगर फिर कोई पिटीशन सर्वोच्च न्यायालय में गया तो माननीय न्यायाधीश रिषिकेश रॉय अपना स्तर और नीचे गिरा लेंगे। उच्च न्यायालय में यह मसला फिर उसी न्यायाधीश आलोक माथुर के पास जायेगा या नहीं मुझे नहीं पता पर अगर गया तो नतीजे वहीं आयेंगे क्योंकि ये दोनों सरकारी जज हैं। आज के परिवेश में न्यायालयों से सही आदेश पारित करवा लेना बहुत कठिन, श्रमसाध्य, धैर्य और बुद्धिमता का कार्य है तो आज जो सचेष्ट अदालती कारवाईयां हम कर रहे हैं उसमें सफलता मिलेंगी पर भविष्य में, अभी नहीं।

मोदी और योगी की सरकारों ने पूरी योजना ठीक से बनायी। ये पेशेवर अपराधकर्मी और हत्यारें हैं हत्या की योजनाएं ठोक ठाक कर बनाते हैं और उससे भी ठीक तरीके से उसका निष्पादन करते हैं। पहले सर्व सेवा संघ के भूखंड को बनारस के प्रस्तावित कॉरिडोर में डाला गया, फिर रेलवे के अधिकारियों को खड़ा किया गया, डीएम को निर्देश दिया गया, उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में जजों की शिनाख्त की गयी, सर्व सेवा संघ की पिटीशनों को उनकी खंडपीठों में लगवाया गया और जो आदेश और नतीजे आये वह आप जानते है। डीएम को इन गुंडों ने पूरा भरोसा दिया कि जो काम उन्हें सौंपा गया है उसे वे पूरी योजना के अनुकूल निष्पादित करें वे अदालतों से बिल्कुल सुरक्षित हैं।

आप अंदाजा लगा सकते हैं चुनाव के नतीजे ये किस प्रकार प्रभावित करते होंगे।इसलिए गांधीवादियों को अपने अंदर के महादेव विद्रोही जैसे अनैतिक और भ्रष्ट लोगों से लड़ने की चुनौती है और महादेव विद्रोही जैसे घटिया और शर्मनाक लोग बहुत सारे हैं गांधीवादी संस्थाओं में तो दोस्ती भाई भतीजबाद छोड़ना पड़ेगा और इन निकृष्ट लोगों को गांधी जी की संस्थाओं से बाहर का रास्ता दिखाना पड़ेगा और बाहर भाजपा-आरएसएस जैसे अपराधियों और दंगाईयों के स्थापित गिरोह के खिलाफ बड़ी राजनैतिक लड़ाई लड़नी है। भाजपा को हराने के सिवा कोई लक्ष्य अभी महति नहीं हैं। पर गांधीवादियों के पास न तो इसका अभी रिजोल्यूशन दिखता है न ही रणनीति। आप भाजपा को राजनैतिक रूप से बिना हराये साबरमति आश्रम और सर्व सेवा संघ को वापस नहीं पा सकते।

जिस तरीके से साबरमति आश्रम और सर्व सेवा संघ की कानूनी लड़ाईयां लड़ी गयी उसमें बहुत कमियाँ थीं। पर मैं उन कमियों की समीक्षा नहीं कर रहा हूँ क्योंकि अदालत को तो पर्याप्त न्याय करना होता है वह तो तकनीकी गलतियों के आधार पर न्याय करने से मना नहीं कर सकती।

इस बात का ध्यान करें कि संघी गांधी से बहुत डरते हैं। गांधी पर उनकी मौत के बाद भी उनकी तमाम निशानियां मिटा देना चाहते हैं। यह पराजित होने का संकेत है। संघी आज सत्ता के सहारे मजबूत दिख रहे हैं पर हैं एकदोम कमजोर और कायर। इन्हें हराने की रणनीति होनी चाहिए। ये हारेंगे गांधी से ही और ये भारतीय समाज से हमेशा के लिए समाप्त भी होंगे। अभी हमें अपनी कमजोरियों से सबक लेने का वक्त है।

अंतिम बात मोदी और योगी बेईमानी की पर बेहतर रणनीति से जीते हैं और गांधीवादी इमानदारी की किसी रणनीति के अभाव में हार गये हैं। इमानदारी से कैसे जीतेंगे संघी शैतानों से बस अब यही बिमर्श करना है कुछ वर्षों तक गांधीवादियों को।

(निशांत अखिलेश कोलकाता हाई कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।)



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