बढ़त बाइडेन की, परेशान कई वैश्विक नेता ?


शी जिनपिंग को डोनाल्ड ट्रंप जैसे औसत से कम बुद्धि वाला शासक ज्यादा सहज लगता है, जो बात तो चीन विरोधी करता है, लेकिन अंदर से चीन के कारपोरेट सेक्टर से व्यापारिक संबंध भी रखता है। जो किसी भी वक्त अपना स्टैंड बदल सकता है।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हताशा जैसे बढ़ रही है, वैसे भारत में कई न्यूज चैनलों के एंकरों और उनपर बैठे विश्लेशकों के चेहरे पर निराशा और उदासी बढ़ती जा रही है। अभी भी डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी ज्यूडिशियल सिस्टम पर जितना भरोसा है, उतना भारत में बैठे एक वर्ग को भी अमेरिकी ज्यूडिशियल सिस्टम पर भरोसा है। अमेरिकी चुनाव परिणामों और वोटों की गिनती का मामला अमेरिकी कोर्ट में गया तो ट्रंप की उम्मीद फिर बढ़ जाएगी।

हालांकि अमेरिका में हुए वोटिंग में वोटिंग पैटर्न ने कुछ साफ संकेत दिए है। वैसे तो अमेरिकी समाज भारत की तरह ही विभाजनकारी राजनीति का शिकार है। फिर भी अमेरिका की बड़ी आबादी ने बेरोजगारी, अमेरिका की खराब होती अर्थव्यवस्था, कोरोना से निपटने में सरकार की विफलता जैसे मुद्दो पर भी मतदान किया। दुनिया की नजर अमेरिकी चुनाव परिणाम पर है।

शी जिनपिंग को डोनाल्ड ट्रंप जैसे औसत से कम बुद्धि वाला शासक ज्यादा सहज लगता है, जो बात तो चीन विरोधी करता है, लेकिन अंदर से चीन के कारपोरेट सेक्टर से व्यापारिक संबंध भी रखता है। जो किसी भी वक्त अपना स्टैंड बदल सकता है। भारत की चिंता जो बाइडेन से ज्यादा कमला हैरिस है, जो भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर से टिवटर पर टकरा चुकी है।

ट्रंप अगर चुनाव हार भी जाते है तो अमेरिकी समाज में फैली नफरत की भावना खत्म नहीं होगी। रेस के आधार पर पहले से ही बंटे अमेरिकी समाज में ट्रंप ने विभाजन को और हवा देने की कोशिश की। एक ही धर्म से संबंधित अमेरिकी बहुसंख्यक आबादी भारत की तरह धर्म के नाम पर नहीं बंटी है। अमेरिकी समाज धर्म के बजाए रेस के नाम पर बंटा हुआ है। यह विभाजन काफी क्रूर है। बहुसंख्यक इसाई समुदाय के लोग ही रेस के नाम पर बुरी तरह से बंटे हुए है।

ट्रंप ने राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए रेस के विभाजन को और तेज करने की कोशिश की। ट्रंप ने अमेरिकी समाज को वैसे ही विभाजित करने की कोशिश की जैसे भारत में चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों ने देश में धर्म और जाति के विभाजन को हवा दी। लेकिन अभी तक के चुनाव परिणाम बता रहे है कि अभी भी अमेरिकी समाज की बहुसंख्या जागरूक है। बड़े पैमाने पर अमेरिकी नागरिकों ने कोरोना महामारी, बेरोजगारी और गरीबी के मुद्दे पर बाइडेन का समर्थन किया है। इसका सीधा नुकसान डोनाल्ड को हुआ है, जो व्हाइट सुपरमेसी और प्रो कारपोरेट नीतियों पर खुलकर बोल रहे थे और समाज को विभाजित कर रहे थे।

वैसे तो पापुलर वोट के हिसाब से बाइडेन और डोनाल्ड के बीच मुकाबला नजदीक का है। लेकिन अभी तक वोटों की हुई गिनती से यह स्पष्ट है कि कई राज्यों की जनता ने ट्रंप की विभाजनकारी नीति को अस्वीकार कर दिया है। हालांकि बाइडेन चुनाव जीत भी गए तो भी अमेरिकी समाज में विभाजन की समस्या वहीं की वहीं रहेगी। अमेरिकी समाज पहले से ही बंटा हुआ है। लेकिन ट्रंप की नीतियों ने अमेरिकी समाज में विभाजन को और बढाया है। उधर एक भारतीय मूल की महिला कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर बाइडेन ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वे सैदांतिक ही नहीं व्यवहारिक तौर पर ट्रंप की विभाजनकारी नीतियों का विरोध करते रहेंगे।

अमेरिकी लोकतंत्र में कई खामियां है। जजों की नियुक्ति के दौरान उनके राजनीतिक दलों से संबंधों को महत्व दिया जाता है। अमेरिका में भारत की तरह कोई स्वतंत्र चुनाव आयोग नहीं है। अमेरिकी राज्यों के अपने-अपने कानून है। अमेरिकी लोकतंत्र की खामी कहें या विशेषता ट्रंप चाहते है कि मतों की गिनती वहीं तक हो जहां तक वे जीत रहे है। उन वोटों की गिनती नहीं होनी चाहिए जिसमें वे हार रहे है।

अमेरिका जैसे देश में खुलकर फर्मा और डिफेंस कंपनियां राजनीतिक दलों को चंदा देती है। कई बड़ी डिफेंस और फर्मा कंपनियों के चेयरमैन, प्रेसिडेंट, वाइस प्रसिडेंट अमेरिका में राजनीतिक दलों के नेता भी रहे है। फर्मा और डिफेंस कंपनियों खुलकर चंदा देती है और चुनाव के दौरान उम्मीदवार कंपनियों के हितों में कानून और नीति बनाने की घोषणा भी करते है। राजनीतिक दलों से संबंधित नेता कंपनियों के आर्थिक हितों को बचाए रखने के लिए तमाम फैसले लेते है।

अमेरिकी कांग्रेस के मेंबर पैसे लेकर कंपनियों के हितों के लिए कांग्रेस में फैसले लेते है। अमेरिका में इसे भ्रष्टाचार नहीं माना जाता है। अमेरिका में इसे लाबिंग कहा जाता है। अमेरिकी लोकतंत्र की इन तमाम खामियों के बावजूद अमेरिकी जनता ट्रंप जैसे विभाजनकारी नेता को मुंहतोड़ जवाब दे रही है। जबकि भारत जैसे देश में संविधान, कानून स्वतंत्र चुनाव आयोग होने के बावजूद राजनीतिक दलों को इनकी कोई परवाह नहीं है। सरकारें इनकी परवाह नहीं करती। चुनाव आयोग राजनीतिक दल के पक्ष में काम करने लगता है।

अमेरिकी चुनाव बिना स्वतंत्र चुनाव आयोग के निष्पक्षता से हो जाता है। भारत में चुनाव आयोग होने के बावजूद चुनाव निष्पक्षता से नहीं हो पाता है। भारत में पैसे लेकर कारपोरेट के हित में नीति बनाना कानूनन अपराध है। लेकिन व्यवहार रूप मे तमाम राजनीतिक दल कारपोरेट के चंदा से चलते है, उनके हितों में नीतियां बनाते है। अब तो कारपोरेत घराने के प्रतिनिधि सरकारी बैठकों में भाग लेते है, अपने पक्ष में फैसले करवाते है। कई राजनीतिक दल कारपोरेट घराने से जुड़े लोगों को लोकसभा और राज्यसभा में भेजने लगे है ताकि कारपोरेट के हित में आसानी से नीतियां बनायी जा सके।

अमेरिकी चुनाव परिणामों को पूरा विश्व ध्यान से देख रहा है। बाइडेन की बढ़त से विश्व के कई राजनेताओं में उदासी है। खासकर वे जो ट्रंप के नजदीकी दोस्त बताते है। क्योंकि बाइडेन उतने दक्षिणपंथी नही है, जितने ट्रंप है। ट्रंप की हार होगी तो रूस भी परेशान होगा। क्योंकि पुतिन के लिए औसत से कम बुदि वाले ट्रंप ज्यादा माफिक है। ट्रंप हारते है तो चीन भी परेशान होगा। क्योंकि चीन भी ट्रंप की सोच और बुदि को माप चुका है। चीन की परेशानी यह है कि बाइडेन अगर जीतेंगे तो उइगुरों और तिब्बतियों के मानवाधिकारों का मसले पर अमेरिकी स्टैंड और सख्त होगा।

हालांकि ईरान जैसे देश बाइडेन की जीत पर प्रसन्न हो सकते है। वैसे ईऱान को पता है कि बराक ओबामा के कार्यकाल में हुए न्यूक्लियर डील को बहाल करने में बाइडेन को दिक्कत आएगी। लेकिन बाइडेन ईऱान पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों पर ईऱान को जरूर राहत देंगे। बाइडेन ईऱान को लेकर लगभग वही नीति अपनाएंगे जो यूरोपीए देश चाहते है। वर्तमान में अफगानिस्तान में शासन कर रहे तालिबान विरोधी शासक वर्ग भी बाइडेन के आने पर खुश होगा। क्योंकि बाइडेन अफगानिस्तान से सारे अमेरिकी सैनिकों को हटाने के पक्ष में नहीं है।

ट्रंप की विदाई होने पर सऊदी अरब और इजरायल को निराशा होगी। इन दोनों देशों के शासक वर्ग की नजदीकियां ट्रंप के दामाद जेरेड कुशनर से काफी ज्यादा है। इन दोनों मुल्कों के शासक वर्ग के व्यापारिक हित कुशनर से जुड़े हुए है। कुशनर ने अपने व्यक्तिगत प्रयास से सऊदी अरब, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात को इजरायल के करीब लाने की कोशिश की है।