बिहार की झूठी विकास गाथा ?


कोरोना ने बिहार के विकास की पोल खोल दी है। बिहार की अर्थव्यवस्था और बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खुल गई है। कोविड-19 से निपटने की तैयारी कितनी बिहार ने की है, यह दुनिया को पता चल गया है। कोविड-19 की जांच के मामले में बिहार नीचले पायदान पर है। मतलब बिहार में कोविड-19 के कितने मरीज है, इसकी जानकारी खुद सरकार को नहीं है।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

पंजाब से लगभग 10 लाख प्रवासी मजदूरों ने अपने गृह राज्य में वापसी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया है। इसमें ज्यादातर मजदूर बिहार और यूपी के है। ये मजदूर पंजाब की खेती और उधोग में अपना योगदान देते है। लुधियाना से लेकर चंडीगढ़ के स्लम में बहुत ही बुरी हालत मे रहने वाले आम बिहार और यूपी के श्रमिक वर्ग की औसत मासिक आमदनी 8 से 10 हजार है। इसमें से आधे पैसे श्रमिक खुद उपयोग कर आदे पैसे अपने गृह राज्य में भेजते है। दरअसल ये श्रमिक वर्ग अपने जीवन को कष्ट में डालकर अपनी रोजी रोटी चलाता है।

लेकिन इसका एक पक्ष यह है कि एक ओर जहां प्रवासी मजदूर देश के कई राज्यों में बहुत ही खराब हालात में रहकर अपने श्रम से उनकी अर्थव्यवस्था को मजबूत करता रहा है, वहीं अपनी कमाई का कुछ हिस्सा गृह राज्य में भेज गृह राज्य की अर्थव्यवस्था को भी मजबूत करता है। बिहार और यूपी के करोडों श्रमिक दूसरे राज्यों से कमाकर अऱबों रुपये अपने राज्य में भेजते है। इनकी कमाई से भी बिहार और यूपी जैसे राज्य को मदद मिलती है। अगर बिहार का 1 करोड़ माइग्रेंट मजदूर प्रति माह 3 से 4 हजार रूपया बिहार भेजता है तो इससे राज्य की इकनॉमी को मदद ही मिलती है। लेकिन कोविड-19 के दौरान इन मजदूरों को अकेला छोड़ा गया। इन्हें कई जगहों पर पुलिस की लाठी खानी पड़ी।    

दरअसल कोरोना ने बिहार के विकास की पोल खोल दी है। बिहार की अर्थव्यवस्था और बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खुल गई है। कोविड-19 से निपटने की तैयारी कितनी बिहार ने की है, यह दुनिया को पता चल गया है। कोविड-19 की जांच के मामले में बिहार नीचले पायदान पर है। मतलब बिहार में कोविड-19 के कितने मरीज है, इसकी जानकारी खुद सरकार को नहीं है। क्योंकि जितनी संख्या में लोगों की जांच होनी चाहिए वो नही हो रही है। बिहार प्रति 10 लाख लोगों पर मात्र 267 लोगों की जांच कर रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री यह कहकर खुश हो सकते है कि पड़ोसी पश्चिम बंगाल से ज्यादा जांच बिहार कर रहा है। 

पश्चिम बंगाल प्रति 10 लाख की आबादी पर 230 लोगों की कोरोना जांच कर रहा है। वैसे बिहार जैसे राज्य से 21 वीं सदी में भी स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर आप बहुत उम्मीद नहीं कर सकते है। जिस राज्य में चमकी बुखार से हर साल सैंकड़ों बच्चे मर जाए और राज्य सरकार फिर भी विकास का दंभ भरे तो इससे महज आत्ममुग्धता या मूर्खता ही कह सकते है। कोरना जांच के आकंड़े देखिए। 4 मई तक दिल्ली सरकार ने प्रति 10 लाख की आबादी पर 3486 लोगों की कोरोना जांच की है। आंध्र प्रदेश ने प्रति 10 लाख की आबादी पर 2313, महाराष्ट्र ने 1423, राजस्थान ने 1668 लोगों की कोरोना जांच की है।

बिहार में 15 साल में स्वास्थ्य सेवाओं की कितना विकास हुआ है, इसे भी आंकड़ो को देखा जा सकता है। लालू यादव के राज में बिहार बदहाल था। नितीश कुमार ने सत्ता हासिल करने के बाद खूब दावे किए। अस्पतालों के विकास भी दावे किए गए। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केंद्रों से लेकर जिला अस्पतालों तक में भीड़ भी आने लगी। लेकिन यह नितीश कुमार के पहले कार्यकाल के दौरान ही नजर आया। इसके बाद बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली बढ़ती गई। 

आज बिहार में प्राइवेट हेल्थ केयर का भारी मकड़जाल है। गरीबों को लूट का केंद्र भी बिहार का प्राइवेट हेल्थ केयर है। दरअसल इस गरीब राज्य के लोगों की आर्थिक स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1 करोड़ लोग दूसरे राज्यों में जाकर श्रम कर रहे है। वैसे में प्राइवेट हेल्थ केयर बिहार की बड़ी आबादी के बस में नही है। दूसरी सच्चाई है कि सरकारी हेल्थ केयर को बिहार में बर्बाद कर दिया गया। बिहार में सरकारी अस्पतालों की बेड क्षमता से दोगुनी बेड क्षमता प्राइवेट अस्पतालों के पास है। दिलचस्प बात है कि प्राइवेट हेल्थ केयर के मकड़जाल वाले इस राज्य में कोरोना की जंग में प्राइवेट अस्पतालों और नर्सिगों होम का कोई योगदान नजर नहीं आ रहा है। 

राजधानी पटना में कोरोना से जंग तीनों बड़े सरकारी क्षेत्र के अस्पताल ही लड़ रहे है। निजी क्षेत्र के अस्पतालों सहयोग देने को भी तैयार नहीं है। जबकि राज्य में सरकारी अस्पतालों में बेड संख्या 22 हजार है। वहीं प्राइवेट अस्पतालों में बेडों की संख्या 47 हजार है। क्या बिहार के किसी नेता को हेल्थ सर्विस को बेहतर करने को लेकर वाद-विवाद करते हुए किसी ने सार्वजनिक मंच पर देखा है?  दरअसल यहां जिन लोगों के जिम्मे स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने की जिम्मेवारी है, वे खुद इलाज के उलूल-जलूल तरीके बताते है। 

हेल्थ मिनिस्ट्री के सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलिजेंस का नेशनल हेल्थ प्रोफाइल बिहार के हेल्थ केयर की पोल खोल देती है। इस प्रोफाइल में नितीश कुमार की विकास गाथा बहुत अच्छी तरह से देखा जा सकता है। जहां देश में प्रति 11 हजार की आबादी पर 1 डॉक्टर है, वहीं बिहार में प्रति 28391 लोगों 1 डॉक्टर है। हेल्थ केयर में बिहार से बेहतर प्रदर्शन उतर प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों का है। यूपी मे प्रति 19962 पर 1 डॉक्टर है।  बिहार से अलग हो बना राज्य झारखंड में प्रति 18518 लोगों पर 1 डॉक्टर उपलब्ध है।  दरअसल नेशनल हेल्थ प्रोफाइल में सबसे खराब हालात बिहार की है।

यह सच्चाई है कि बिहार के तमाम राजनीतिक दलों दवारा विकास की बात जनता के साथ धोखा है। बिहार की राजनीति का आधार पूरी तरह से जातीए, धार्मिक और नस्ली है। विकास की बात सिर्फ धोखा है।  आज भी पूरा बिहार जाति, धर्म और नस्ल के नाम पर बंटा हुआ है। बिहार में जाति के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं को इस बात पर भी कभी शर्म नहीं आती है कि बिहार राज्य की सीमा के अंदर का जातीय अभिमान का दंभ देश के महानगरों के स्लम एरिया में तार-तार हो जाता है। क्योंकि यहां तमाम जातीय दंभ भरने वाले नेताओं की जातियां गंदे नालों के पास छोटे-छोटे सीलन भरे कमरों में रहने के लिए बाध्य है। 

यह अलग बात है कि जातीय दंभ भरने वाले बिहार के नेताओं के पास देश के महानगरों में आलीशान मकान से लेकर उद्योग भी है। गंदे स्लम में रहने के लिए मजबूर बिहार के लोगों को आप उतर भारत के अमृतसर, जालंधर, लुधियाना से लेकर दक्षिण भारत के कर्नाटक, पश्चिम भारत के गुजरात, महाराष्ट्र तक में देख सकते है। दिलचस्प बात है कि चुनावी मौसम में इन स्लमों में भी बिहार के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता शान से चुनाव प्रचार करते नजर आएंगे। देश के महानगरों और दूसरे नगरों में चुनावों के दौरान बिहार के नेता आपको जाति और क्षेत्र के नाम पर वोट मांगते जरूर नजर आएंगे। वहां भी इनकी बेशर्मी की हद होती है जब वे भाषणों में बिहार के विकास की बात करते है। अगर बिहार में इतना विकास ही होता तो इतनी संख्या में बिहार के लोग क्योंकि महानगरों के स्लम में रहने को मजबूर होते।

दरअसल बिहार सरकार से कुछ सवाल पूछे जाने जरूरी है। कोरोना संकट के लॉकडाउन में फंसे श्रमिकों की हालात काफी खराब रही। अब श्रमिक बिहार वापस आ रहे है। लेकिन वापसी के वक्त इनसे श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में भी किराया वसूले जाने की खबर आयी है। अगर ये खबर सही है तो सबसे पहले राज्य सरकार से सवाल पूछा जाना चाहिए की क्या राज्य की सरकार संकट काल में अपने गरीब मजदूरों को अपने गृह राज्य में लाने के लिए 200-300 करोड़ रुपए खर्च नहीं कर सकती है। साधारण ट्रेन मे रेलवे को प्रति व्यक्ति प्रति किलोमीटर 90 पैसे खर्च आता है। लेकिन रेलवे का दावा है कि रेलवे प्रति किलोमीटर प्रति सवारी 90 पैसे की जगह 45 पैसे सवारियों से ले रही है। दरअसल 1 श्रमिक स्पेशल ट्रेन पर सरकार का खर्च ज्यादा से ज्यादा 15 लाख रुपया आएगा। क्या राज्य की सरकारें केंद्र सरकार के साथ मिलकर अपने श्रमिकों के लिए इतना पैसा भी खर्च नहीं कर सकती है?