धर्मेंद्र नाथ ओझा
हिंदुस्तान में जब सिनेमा का आगमन हुआ उसके कुछ साल बाद ही पारसी, गुजराती, बंगाली और यूरोपियन लोग टेंट सिनेमा के ज़रिए हिंदुस्तान के कस्बे और ग्रामीण इलाकों में फिल्मों को प्रदर्शित करने लगे। लोगों के लिए वो एक नया अनुभव था। टेंट सिनेमा के ज़रिए उन लोगों का मकसद सिर्फ़ व्यवसाय करना था ना कि लोगों को जागरूक करना।
लेकिन खजुराहो अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव का एकमात्र उद्देश्य है लोगों को अच्छी देशी और विदेशी सिनेमा से कराना और उन्हें जागरूक करना।
खजुराहो फ़िल्म महोत्सव में हिस्सा लेते हुए मुझे सिनेमा के सौ साल पहले का दौर का ख्याल आया। जहां टेंट में लोग पैसे देकर सिनेमा देखने आते थे क्योंकि उस समय लोगों के लिए सिनेमा एक जादू का पिटारा लगता था। लेकिन यहाँ बुंदेलखंड के पिछड़े इलाके में कनात से बने मिनी थिएटर में लोग मुफ्त में फिल्में देख रहे थे। फ़िल्म महोत्सव के मुख्य आयोजक अभिनेता राजा बुन्देला ने इस अस्थायी थिएटर को टपरा टॉकीज का नाम दिया है। खजुराहो में जगह जगह ऐसे टपरा टॉकीज बना के देशी और विदेशी फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता है।
खजुराहो अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव बाकी फ़िल्म महोत्सवों से इसलिए अलग है क्योंकि यहाँ के ज़्यादातर ग्रामीण परिवेश से आते हैं। लोकसंस्कृति उनकी ताकत है। लोक का अभिप्राय सर्वसाधारण जनता से है, जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर सामूहिक पहचान है। लोक संस्कृति कभी भी शिष्ट समाज की आश्रित नहीं रही है, उल्टे शिष्ट समाज लोक संस्कृति से प्रेरणा प्राप्त करता रहा है।
शाम सात बजे इस फेस्टिवल का सांस्कृतिक कार्यक्रम का एक अलग आकर्षण है। दिल्ली, मुम्बई, भोपाल से आए मेहमानों को होटल लॉबी में रंग बिरंगे पगड़ी बांधी जाती है ताकि कार्यक्रम में मेहमान विशिष्ट नज़र आएं।
अभिनेता और निर्देशक राजा बुन्देला और उनकी पत्नी अभिनेत्री सुष्मिता मुखर्जी का इस फेस्टिवल के पीछे कड़ी मेहनत, लगन और भाव बखूबी परिलक्षित होता है।
होटल के कॉन्फ्रेंस हॉल में मीडिया ब्रीफिंग, मास्टर क्लास और पैनल डिस्कसन समानांतर चलते रहता है। इस फेस्टिवल के बहाने सांस्कृतिक कार्यक्रम में बुंदेलखण्डी युवक और युवतियों को मंच दिया जाता है। उनके नृत्य और गायन की प्रस्तुति हर शाम होती है।लोकसंस्कृति और सिनेमा का ज़बरदस्त सामंजस्य दिखाई पड़ता है।
झांसी से आए युवाओं के लोकगीत और उनके लोकनृत्य का सुंदर प्रदर्शन देखने को मिला। दो लड़कियों ने बुंदेलखंड के पारंपरिक नृत्य के साथ फिल्मी गीत के फ्यूज़न पर नृत्य प्रस्तुत किए।
राजा बुन्देला की चिंता और बेचैनी कि हर समर्थ लोगों को दूसरे लोगों या अपने इलाके के लिए कुछ करना चाहिए। सरकार भरोसे सिर्फ़ जीवन नहीं चलता। हमेशा दूसरे की भलाई का बीड़ा उठानेवाले बड़ी लकीर खींचते हैं।
एक उत्सव का माहौल। आम ग्रामीण लोगों के परिवार के मर्द, स्त्री और बच्चे उत्साह से यह महोत्सव देखने के लिए आते हैं मानो उनके यहां कोई शादी समारोह चल रहा हो। जहाँ मुंबई के फिल्मी कलाकार के साथ बुंदेलखंड में अच्छे काम करने वाले को भी सम्मानित किया जाता है। वहां के लोकल लोगों को भी मंच दिया जाता है।
खुले में कार्यक्रम होने से सर्दी का तापमान 18 डिग्री से घटकर 11 डिग्री तक चला जाता है। लेकिन लोगों के उत्साह में कोई कमी नहीं होती। बदन पर कपड़े की एक एक पट्टी पहनके युवा नृत्य दिखाते रहे। तभी अभिनेता, गीतकार और गायक पीयूष मिश्रा हमारे बगल के सोफे पे आके बैठे। मुम्बई से भोपाल फ्लाइट से आए और भोपाल से खजुराहो 8 घण्टे में कार से पहुँचे थे। थकान उनके चेहरे पे झलक रही थी।
रंगारंग कार्यक्रम के बीच तापमान और गिरने लगा। 10 डिग्री तक तापमान पहुँचा तो हम मेहमान लोग सीधे होटल आ गए। जबकि 7 -8 डिग्री सर्दी में कार्यक्रम 10 बजे तक चलता रहा। जितने दर्शक अंदर थे उससे ज़्यादा दर्शकों की भीड़ दोनों तरफ गेट के बाहर खड़ी थी। कहते हैं ग्रामीण दर्शक थोड़े अराजक होते हैं जबकि यहां की दर्शक बेहद अनुशासित और कला में रुचि रखने वाले दिखे।
होटल के कमरे की गर्माहट में इधर उधर की बातें होने लगी। अजित राय ने पूछा कि अफवाह फैली है कि पीयूष मिश्रा ने शराब छोड़ दी। पीयूष भाई हैरान होते हुए बोले कि मेरा एक्सीडेंट कराओगे क्या? बिना पीये मैं गाड़ी ड्राइव कर ही नहीं सकता। किसने ये बेहूदा अफ़वाह फैलाई है।
चर्चा चलते हुए बात अभिनेता इरफ़ान खान की होने लगी। पीयूष भाई ने कहा कि बहुत जल्दी चला गया यार। उसका काम और सबसे ज़्यादा उसका आत्मविश्वास मुझे पसन्द था। अजीत राय ने कहा कि सीन के बीच में अपने अभिनय से चमत्कार करने की खूबी उनमें मौजूद थी जिसे मोमेंट ऑफ मिरेकल कहा जा सकता है।
पीयूष भाई ने कहा कि इरफान और तिग्मांशु धूलिया की दोस्ती अमर है। मैंने कहा कि तिसु भाई यारों के यार हैं। पीयूष कहने लगे कि तिसु दोस्ती निभाना जानता है। वह अपने यारों का कद्र भी करता है और ख़्याल भी रखता है। वे बताने लगे कि तिग्मांशु धूलिया से उनकी दोस्ती कैसे हुई। चूँकि पीयूष मिश्रा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में उनके सीनियर थे। जब तिशु भाई ड्रामा स्कूल आए तो पीयूष मिश्रा ने उनकी रैगिंग ली। वे तिशु भाई की रैगिंग लेते पूछे कि तुम्हारा फेवरेट एक्टर कौन है ? तिशु भाई ने कहा कि रॉबर्ट डी नीरो।
पीयूष मिश्रा ने तिग्मांशु को उसी वक़्त गले से लगा लिया और कहा कि तू मेरा भाई है। मेरा भी फेवरेट एक्टर वहीं है। उन्होंने कहा कि मैं, इरफान और तिशु रॉबर्ट डी नीरो की फ़िल्म रेट्रो देखने साथ गए। हम तीनों ड्रामा स्कूल में अभिनय की बारीकियों पे बहस किया करते थे। इरफ़ान ने उन बारीकियों को ज़्यादा आत्मसात किया था। अभी दुनिया को उसका अभिनय देखना बाकी था उसके पहले वह अलविदा कह गया।
लंच के बाद सुप्रसिद्ध फ़िल्म समीक्षक अजित राय रेस्टोरेंट मैनेजर को बता रहे थे कि डिनर में मटन बनाना और हाँ ताज़ा बकरा कटवाना। सर्दी बहुत है। तभी फ़िल्म फेस्टिवल की कोई लड़की आके अजित जी से बोली सर.. आज सांस्कृतिक कार्यक्रम में रहिएगा। आज भी आपको मुख्य अतिथि बनकर कलाकारों को सम्मानित करना है।
अगले दिन हम मंच पर पीयूष मिश्रा के आरम्भ है प्रचंड गीत सुने। हारमोनियम लेकर उन्होंने दो तीन गीत सुनाए जिसमें एक बगल में चांद होगा… एक बगल में रोटियाँ। लोग झूमते हुए तालियाँ बजाने लगे। फिर सर्दी ने किसी कलाकार की परवाह नहीं की… अपने स्वभाव के अनुसार सर्दी अपना तापमान गिराने लगी। इसके पहले कि खुले कार्यक्रम में तापमान 10 डिग्री तक पहुँचे। मैं, पीयूष भाई और अजित राय कार में सवार हुए और होटल के अपने कमरे में पहुँच गए।
पीयूष भाई के कमरे में तत्व चिंतन शुरू हुआ और राजनीति में वाम विचारों और दक्षिणपंथी विचारों पे बातें शुरू हुई। फिर बहस की धारा सिनेमा की तरफ मुड़ गई। अजित राय जी ने अरब सिनेमा का ज़िक्र करते हुए काहिरा फ़िल्म फेस्टिवल पे बातें करने लगे उन्होंने बताया कि मिस्र देश के काहिरा फ़िल्म फेस्टिवल में ना मुझे एक भी बुर्का देखा और ना दाढ़ी। वहाँ के युवक और युवतियों का उत्साह देखकर ऐसा लग रहा था मानो यह फेस्टिवल यूरोप के किसी शहर में चल रहा हो। मैंने पूछा कि आपकी नजर में बेहतर हिन्दी सिनेमा की क्या संभावना नज़र आती है ?
अजित जी ने कहा कि संभावना धूमिल पड़ी नज़र आ रही है लेकिन सम्भावना कभी खत्म नहीं होती। अमेरिका या यूरोप में फ़िल्म डायरेक्टर की हैसियत स्टार से कहीं ज़्यादा है। फ़िल्म के विषय में ज़्यादातर सवाल डायरेक्टर से किये जाते हैं लेकिन हिन्दी सिनेमा में स्टार सबकुछ तय करता है। कितने फ़िल्म प्रोमोशन के इंटरव्यू में डायरेक्टर तक को नहीं बुलाए जाते। प्रोमोशन में स्टार एक्टर और स्टार एक्ट्रेस आते हैं। डाइरेक्टर आता भी है तो कुर्सी लेके एक कोने में बैठा होता है फ़िल्म के बारे में सारे सवाल के जवाब स्टार हीं देते हैं। लेखक को तो कभी बुलाया भी नहीं जाता।
पीयूष भाई ने अभिनय पर बात करते हुए ओम पुरी को सहज अभिनय का मास्टर कहा। हर किरदार को इतने आसानी से निभा जाते थे। वाकई अदभुत एक्टर थे वो।
ये बहस चलती हुई मास्टर फिल्मकार घटक, रे, गिरीश कस्सावली, असग़र फरहादी से होते हुए बात मछली तक पहुँच गई। नीचे रेस्टोरेंट से कॉल आया कि मछली पकने में थोड़ा टाइम लगेगा। होटल के रेस्टोरेंट में मछली विशेष तौर पर अजित राय और पीयूष मिश्रा के लिए पक रही थी।
उस वक़्त मुझे केदार नाथ सिंह की कविता की एक पंक्ति याद आ गई- “सब्जी अगर नहीं पकती तो कोई बात नहीं…. ज़मीन पक रही है।”