
संजीव पांडेय
तीर निशाने पर लगा है। कम से कम वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की राहुल गांधी पर दी गई प्रतिक्रिया यही बताती है। राहुल गांधी दिल्ली के सुखदेव बिहार में लॉकडाउन से परेशान प्रवासी मजदूरों से मिलने गए। उनके दर्द को सुना, उन्हें मदद देने की बात की। राहुल गांधी के इस कदम से सता पक्ष में एकाएक बौखलाहट दिखी। सामान्य रुप से अंग्रेजी में जवाब देने वाली निर्मला सीतारमण राहुल गांधी पर हिंदी में प्रतिक्रिया दे रही थी। राहुल गांधी का यह कदम सरकार को खासा चुभ गया। सोशल मीडिया के इस युग में राहुल गांधी ने सरकार के लिए खासा परेशानी खड़ी कर दी। सीतारमण की प्रतिक्रिया ने कांग्रेसियों के मनोबल को और उंचा कर दिया। क्योंकि सरकार की प्रतिक्रिया यह बताने के लिए काफी थी कि राहुल गांधी के कदम से सरकार परेशान हुई है।
पूरे देश में प्रवासी मजदूरों का पलायन ने देश की व्यवस्था की पोल खोल दी है। वैसे सरकार की पोल तो नोटबंदी के दौरान ही खुल गई थी। लेकिन नोटबंदी के दौरान परेशान समाज का एक तबका हुआ था। उस दौरान सरकार यह प्रचार करने में कामयाब हो गई थी कि नोटबंदी गरीबों के हित में है, थोड़े दिन कष्ट सहिए, इससे देश के अमीरों को भारी चोट पहुंची है, उनके जेब का सारा पैसा सरकार ने निकाल कर अपने खजाने में भर रहा है। बाद मे तो गरीबों का ही भारी भला होगा। सरकार के इस प्रचार से गरीब संतोषी हो गए, बेशक सैकड़ों लोग नोटबंदी के दौरान बैंकों में लगे लाइन में मर गए थे। लेकिन कोविड-19 के लॉकडाउन में सबसे ज्यादा प्रभाव गरीबों पर पड़ा है। वे भुखमरी के कागार पर है। सड़कों पर भूख से मर रहे है। सरकार की व्यवस्था की पोल इस बार खुल गई है, लेकिन पोल खोल में विपक्ष का योगदान न के बराबर है।
कोविड-19 के दौरान केंद्र सरकार की नीतियों और दुर्वयवस्था की पोल खुल गई है। जो काम फिलहाल इस समय देश के तमाम विपक्षी दलों को करना चाहिए था वे आम जन कर रहे है। देश में वामपंथी पार्टियों का आधार किसान, मजदूर और श्रमिक रहे हैं। लेकिन इस संकट काल में वे भी जमीन से गायब है। वामपंथी दलों की मेहनत सरकार को सिर्फ ज्ञापन देने में नजर आ रहा है। बाकी अन्य क्षेत्रीए दलों की हालत भी खास्ता है। रास्तों में भेड़-बकरियों की भांति सड़कों और रेलवे लाइनों पर जाते प्रवासी मजदूरों को सुविधा देने की कोशिश विपक्षी दलों ने भी ईमानदारी से नहीं की। विपक्षी दलों और इनके नेताओं के पास इतना पैसा है कि वे चाहते तो अपने संसाधनों से प्रवासी मजदूरों को वाहन उपलब्ध करवाते। कई विपक्षी दलों के नेता तो देश के बड़े ट्रांसपोर्ट कारोबारी है। लेकिन उन्होंने कोई वाहन इन गरीब मजदूरों को उपलब्ध नहीं करवायी।
विपक्षी दलों की तमाम निष्क्रियता के बावजूद राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका गांधी कोविड-19 के दौरान सक्रिय रहे। तमाम मुद्दों पर सही समय पर सही सलाह भी सरकार को दी। बेशक सरकार को यह सलाह नागवार गुजरा। राहुल गांधी का यह प्रयास निश्चित तौर पर आईसीयू में लेटी हुई कांग्रेस को उठाने की कोशिश कर रही है। हालांकि कांग्रेस अस्पताल से बाहर कब आएगी यह समय बताएगा। राहुल गांधी का सुखदेव बिहार जाने की घटना को 1977 में इंदिरा गांधी की बेलछी की यात्रा को एक बार याद जरूर दिलाती है। बिहार के नालंदा जिला में हरनौत से बेलछी तक 15 किलोमीटर के दुर्गम रास्ते को हाथी पर बैठकर इंदिरा गांधी पीडि़तों से मिलने गई थीं।
हालांकि इंदिरा गांधी की बेलछी यात्रा से राहुल गांधी की सुखदेव विहार में मजदूरों से जाकर मिलने की घटना की तुलना तो नहीं हो सकती है। लेकिन राहुल गांधी के प्रयास ने यह जरूर साबित किया है कि देश के सबसे निचले तबके के प्रति कांग्रेस में संवेदनशीलता है। हो सकता है सताधारी दल इसे महज दिखावे का खेल बताएं। लेकिन सताधारी दल के इस तर्क को खारिज किया जा सकता है। क्योंकि सताधारी दल तो दिखावा भी नहीं कर रही है। कोरोना आपदा के काल में पैकेज की आड़ में सरकारी संपतियों को बेचने का खेल शुरू हो गया है। दरअसल एनडीए और भाजपा के नेताओं को पता है कि कांग्रेस कारपोरेट समर्थक होते हुए भी गरीबों को उनका उचित हिस्सा देने के पक्षधर रही है।
कारपोरेट जगत और उदारीकरण के पैरोकार मनमोहन सिंह को भी मनरेगा और भोजन का अधिकार देना पड़ा। इन योजनाओं के पीछे कांग्रेस की वैचारिक इतिहास का दबाव रहा है। इस वैचारिक दबाव से न तो राजीव गांधी मुक्त हो पाए, न सोनिया गांधी और न राहुल गांधी। वर्तमान एनडीए सरकार ने यूपीए सरकार दवारा चालू किए गए मनरेगा और खाद सुरक्षा कानून को हमेशा कमजोर करने की कोशिश की। मनरेगा योजना को खत्म करने के तमाम सरकारी प्रयास किए गए। वैसे में जब राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी की तुलना होगी तो यह जरूर कहा जाएगा राहुल नरेंद्र मोदी के मुकाबले ज्यादा गरीब समर्थक है, बेशक नरेंद्र मोदी गरीब परिवार में पैदा हुए और राहुल गांधी अमीर परिवार में पैदा हुए।
राहुल गांधी की विरासत सोशलिस्ट आइडोलोजी की विरासत है। यही कारण है कि कांग्रेस क्रूर पूंजीवाद और समाजवाद के बीच एक सामांजस्य स्थापित करने की कोशिश करती रही है। अगर यूपीए-1 औऱ 2 के कार्यकाल में कई बड़े कारपोरेट घरानों को भारी मदद देने संबधी घोटाले सामने आए तो कई गरीब समर्थक योजनाओं की भी शुरूआत की गई। जबकि एनडीए सरकार के दौरान गरीब समर्थक योजनाओं के माध्यम से कारपोरेट लॉबी को फायदा पहुंचाया गया। इसका उदाहरण ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’और ‘आयुष्मान भारत’योजना है, जो शुरू तो किसान औऱ गरीबों के भले के लिए की गई लेकिन लाभ कारपोरेट बीमा कंपनियों को पहुंचा। किसान और गरीब के बहाने बीमा कंपनियों ने खूब मुनाफा कमाया।
राहुल गांधी और उनके पिता स्वर्गीय राजीव गांधी पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की समाजवादी विचारधारा के प्रभाव से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाए। मनमोहन सिंह जैसे कारपोरेट समर्थक प्रधानमंत्री को भी यूपीए-1 औऱ यूपीए-2 के कार्यकाल में गरीब समर्थक उन योजनाओं को शुरू करना पड़ा जो मुफ्त की योजनाओं में शुमार होता है। इस तरह की योजनाओं पर आईएमएफ और विश्व बैंक की सहमति कभी नहीं रही। यूपीए-1 औऱ 2 में गरीब समर्थक योजनाओं के पीछे नेहरू-गांधी परिवार के समाजवादी विचारों की पृष्ठभूमि का प्रभाव रहा है। लेकिन अब राहुल गांधी और सोनिया गांधी के सामने नया संकट है। दअरसल कांग्रेस की वैचारिक बुनियाद समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता है। जबकि भाजपा की वैचारिक बुनियाद हिंदुत्व है। दरअसल कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को वर्तमान में अपनी वैचारिक बुनियाद की समझ न के बराबर है। सवाल यही है कि क्या राहुल गांधी बीच-बीच में जनता के बीच जाकर भाजपा से लड़ाई ल़ड़ लेंगे?
(संजीव पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं और चंडीगढ़ में रहते हैं।)