रविवार की कविता : बारिश अपने लिए नहीं आती…


भारती सिंह ने बर्दवान विश्वविद्यालय (पं.बंगाल) से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया और गढ़वा (झारखण्ड) में रहती हैं। राँची विश्वविद्यालय से ‘बेनीपुरी कथा- साहित्य में शिल्प- प्रयोग’ पर पीएच. डी. किया। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, यथा- वागर्थ, वाक्, परिकथा, पाखी, चौपाल, लहक आदि में कविताएँ, समीक्षाएँ तथा आलोचनात्मक लेख प्रकाशित। संप्रति : महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक।



अब बारिश नहीं आती मिलने
अब वह इन्तज़ार में तक्सीम हो गयी है !
आँखें टकटकी लगाए
बादलों से गुहार लगाती हैं
और जैसे वह भी रूठ गये हों
प्यासी धरती , प्यासी फसलें ।

हल के पैनों पर हमने
बारिश को फिसलते देखा है
और धरती ने भर अँजुरी
भीतर पसरी प्यास को
अमृत -पान कराया हो जैसे
किसान के आँखों का भाव
पिता के नेह-सा हो उठता है
वह विह्वल हो हल के पैनों पर
बूँदो को भर लेना चाहता है ।

कहता है गाँव का बूढ़ा पीपल
आती थी जब मेघ की बेटियाँ अपने पीहर
सारा गाँव उत्सव मानता
बारिश की उँगलियों को थाम
मुँडेरों  से सरकती बूँदों को
बच्चे अपने नन्हे हथेलियों में ओड़
अपने चेहरे पर दो स्वप्नों की नीड़ में  उतार लेते।

बारिश अपने लिए नहीं आती
वह आती है रेत के लिए
घास की फुनगियों पर
अपनी बूँदो को तौलती हुई
पत्तियों के कंठ को तर करती है
बारहसीन्घा के सिन्घों पर
मचलती हुई खिलखिलाती है
इन्द्रधनुष को गले लगाकर
मोर के पंखों पर न्यौछावर होती है
उसे प्यार है फूलों से तो फिक्रमंद होती है नागफनी के लिए भी
जिसके भीतर रिस कर दूध की धार बनती है
वह गिलहरियो की आँखों की चमक बनती है
क्योंकि उसके प्यासे पात्र में तृप्त होती है।

बारिश अब पीहर नहीं आती
अब बारिश नहीं आती मिलने
अब वो इंतजार में तक्सीम हो गयी है!



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