पांच अगस्त को अयोध्या में राम मंदिर शिलान्यास के अवसर पर टीवी चैनलों का भी जमावड़ा था। चैनलों की इस भीड़ में दूरदर्शन भी था जो सुबह से ही लाइव कर रहा था। इस लाइव कार्यक्रम के दौरान जो कमेन्ट्री कर रहा था उसने कहा कि “रामायण की एक चौपाई है जो आज बिल्कुल प्रासंगिक दिख रही है। पुनि पुनि चितएहु सुनिए सुनाए। हिय की प्यास बुझत न बुझाये।” इस चौपाई के बाद उसने कमेन्ट्री अनवरत जारी रखी। लेकिन जिन्होंने भी ये सुना होगा वो शायद जानते होंगे कि रामायण में कोई चौपाई नहीं है।
रामायण महर्षि वाल्मीकि ने लिखा था और उसमें संस्कृत श्लोक हैं। अवधी की चौपाई रामचरित मानस में है जिसे गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है। लेकिन कमेन्ट्री करनेवाले ने गड़बड़ सिर्फ इतनी भर नहीं की। उसने जिस चौपाई को रामायण की चौपाई बता दिया वह रामचरित मानस की चौपाई ही नहीं है। वह रामानंद सागर के रामायण धारावाहिक का शीर्षक गीत है जिसे लिखा और कंपोज किया था स्वर्गीय जयदेव ने।
पांच सौ साल के इंतजार के बाद अयोध्या में हुए भव्य शिलान्यास के दौरान सरकारी टीवी चैनल की ये गलती इतनी मामूली है कि इस पर ध्यान देना भी तुच्छ लगता है लेकिन असल में इसी तुच्छता से आप भव्यता के पीछे छिपे मानस को पकड़ सकते हैं। भारत का तथाकथित जागृत हिन्दू समाज कितना जागृत हो चुका है इसे समझ सकते हैं। वह जो होने का गर्व कर रहा है, असल में वह वो हो ही नहीं पाया है। खासकर, समाचार और नौकरशाही के संसार में धर्म का जो राजनीतिक कार्यक्रम चल रहा है, न तो वह उसके लिए तैयार है और न ही उसके पास धर्म की कोई समझ ही है। मानो जल्दबाजी में उसने अपने आपको धार्मिक बताकर सामने प्रस्तुत कर दिया और जल्दबाजी में गलतियां तो होती ही हैं।
और ये जल्दबाजी सिर्फ मीडिया और नौकरशाही में ही दिख रही हो, ऐसा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने भी सुनवाई के आखिरी दिन जल्दबाजी दिखा ही दिया था और सभी पक्षकारों को साफ कह दिया था जो बहस करनी है आज शाम पांच बजे तक कर लीजिए, अब और समय नहीं है हमारे पास। हिन्दू और मुस्लिम दोनों तरफ के पक्षकार दो दो दिन का और समय मांग रहे थे लेकिन रंजन गोगोई के पास अब बिल्कुल समय नहीं था। सुनवाई के दौरान भी वो बार-बार टिप्पणी करते रहे कि ऐसे ही बहस चलती रही तो फैसला लिखने तक का समय नहीं मिलेगा। मानों रंजन गोगोई ने तय कर लिया था कि वो अपने समाप्त हो रहे कार्यकाल से पहले रामजन्मभूमि का स्वामित्व निर्धारित करके जाएंगे। और उन्होंने वही किया। 9 नवंबर 2019 को पांच सदस्यों की खंडपीठ ने एकराय से अयोध्या में 2.77 एकड़ विवादित जमीन रामलला को सौंप दी।
इस फैसले के बाद बहुत कुछ था जो जमीन पर होना था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक ट्रस्ट का गठन किया गया फिर उसी ट्रस्ट को केन्द्र सरकार द्वारा अधिगृहित 67 एकड़ जमीन सौंप दी गयी। मंदिर निर्माण के मुख्य कार्यपालक अधिकारी पीएमओ में मोदी के सलाहकार रहे नृपेन्द्र मिश्र बनाये गये। रामलला को टेन्ट से निकालकर एक अस्थाई मंदिर में स्थापित किया गया। मंदिर के लिए लार्सन एण्ड टुब्रो को ठेका दिया गया जिसने मुफ्त में रामलला का मंदिर बनाने का ऐलान किया।
मंदिर के डिजाइन में बदलाव किया गया और उसे पहले से प्रस्तावित मॉडल के दो मंजिल को बढ़ाकर तीन मंजिल किया गया। जमीन का समतलीकरण किया गया। आठ महीने के भीतर ये सारे काम कर लिये गये। लेकिन इस बीच कोरोना संक्रमण फैल गया। हो सकता है भूमि पूजन की तिथि आगे बढा दी जाती लेकिन मोदी योगी दोनों शिलान्यास की जल्दी में थे। इसलिए कोरोना संक्रमण के बीच ही पांच अगस्त को यह कार्य संपन्न कर लिया गया ताकि साढ़े तीन साल की अवधि में मंदिर बनकर तैयार हो जाए।
2024 के आम चुनाव से पहले रामलला का भव्य मंदिर बनकर तैयार होना है तो शिलान्यास जल्द करना जरूरी था। ऐसे में अलग अलग ज्योतिषियों की आपत्ति को दरकिनार कर दिया गया। ज्योतिषियों के एक वर्ग ने तर्क दिया था कि जिस काल में शिलान्यास हो रहा है वह शुभ नहीं है। वैसे भी देवशयनी एकदशी के बाद भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में चले जाते हैं और चार महीने योगनिद्रा में रहते हैं। इस बीच वैष्णव मत में किसी शुभ कार्य की शुरुआत नहीं की जाती। शादी विवाह तक वर्जित रहते हैं। ऐसे में भगवान विष्णु के ही अवतार भगवान राम के मंदिर का शिलान्यास कैसे किया जा सकता है?
अगर तर्क की कसौटी पर कसें तो ये आपत्तियां निराधार नहीं हैं। मीडिया से बात करते हुए विश्व हिन्दू परिषद के महामंत्री और श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के सचिव चंपत राय ने भी माना कि कुछ संत इसलिए नहीं आ पा रहे हैं क्योंकि उनका चातुर्मास चल रहा है। अगर चातुर्मास में साधु संत भी यात्रा नहीं करते तो फिर भगवान राम के जन्मस्थान पर बहुप्रतिक्षित मंदिर का शिलान्यास क्यों कर दिया गया? बहुत विचार करने पर जवाब शायद वही मिलेगा कि अब और इंतजार करने का समय नहीं है।
इंतजार का समय तो किसी के पास नहीं रहा कभी, चाहे वो राम मंदिर आंदोलन के अगुवा रहे अशोक सिंहल रहे हों या फिर परमहंस रामचंद्र दास।1992 में मस्जिद-ए-जन्मस्थान गिरने के बाद सबको वहां स्थाई राम मंदिर निर्माण की जल्दी ही रही है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में भी प्रयास हुआ था कि वहां मंदिर निर्माण का कार्य शुरु करवा दिया जाए लेकिन ऐसा संभव न हो सका। परमहंस रामचंद्रदास ने तो सार्वजनिक तौर पर राम रथयात्रा निकालने वाले आडवाणी पर आरोप तक लगा दिया था कि “वही” हैं जो मंदिर नहीं बनने देना चाहते।
सिर्फ एक संस्था थी जिसे अयोध्या में मंदिर निर्माण की कोई जल्दी नहीं थी और वो था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने मंदिर के शिलान्यास के मौके पर स्वीकार किया कि जिन दिनों मंदिर आंदोलन की संघ में तैयारी हो रही थी उस समय के सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने कहा था कि बीस तीस साल की तैयारी करो। इतनी जल्दी ये काम नहीं होगा। और सचमुच अयोध्या में रामजन्मभूमि के लगभग पांच सौ साल के निरंतर संघर्ष में ये तीस साल ही निर्णायक साबित हुए। इसके पहले रामजन्मभूमि के लिए सभी संघर्ष साधु संतों के संघर्ष थे लेकिन पहली बार स्वतंत्र भारत में किसी राजनीतिक विचारधारा ने इसे अपना मुद्दा बनाया। बलरामपुर से सांसद रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने राम मंदिर का मुद्दा उठाया और उसके बाद तो यह भाजपा और संघ का केन्द्रीय मुद्दा बन गया।
जिन्होंने नब्बे का दशक देखा है वो समझ सकते हैं कि उस समय का उत्साह, संघर्ष क्या था और आज जब राम मंदिर का निर्माणकार्य विधिवत शुरु हो गया तब लोगों का उत्साह कैसा है? उस दौर को देखने वाले जानते होंगे कि उस समय राम मंदिर का मुद्दा आम जनामनस का मुद्दा बन गया था क्योंकि राम आम जनमानस के ही राम हैं। लेकिन आज अयोध्या में शिलान्यास का आयोजन एक पार्टी और विचारधारा विशेष का आयोजन बनकर रह गया।
आरएसएस शुरु से जल्दी में इसलिए नहीं था क्योंकि उसके रणनीतिकार इसे जितना हो सके उतना लंबा जिन्दा रखना चाहते थे। इससे हिन्दू जागरण में मदद मिल रही थी। लेकिन शिलान्यास में वह आम जन नदारद रहा। कुछ कोरोना आपदा के कारण और कुछ एक पार्टी विशेष का कार्यक्रम बन जाने के कारण। शायद यही कारण है कि नब्बे के दशक वाला उत्साह आज नहीं दिखा। दीपावली मनी लेकिन आम जनमानस में नहीं, बल्कि एक विचारधारा और पार्टी विशेष से जुड़े लोगों के घर पर।
सदियों से सभी जातियों की सीमा तोड़कर सर्व समाज के नायक रहे राम का ये सीमांकन ही इस आयोजन पर सवाल उठाता है। क्या ये अच्छा नहीं होता कि सभी राजनीतिक दलों के लोग वहां उसी तरह निमंत्रित किये जाते जैसे सभी संप्रदायों से जुड़े साधु संत आमंत्रित किये गये थे? संघर्ष के बाद विजय में उदारता राम की शिक्षा है। राम मंदिर के लिए तीस साल राजनीतिक संघर्ष करनेवाले लोग शायद राम के विराट चरित्र से ये शिक्षा लेना भूल गये। ये भूल वैसे ही है जैसे दूरदर्शन के कमेन्टेटर की भूल जिसने जयदेव के गीत को रामायण की चौपाई बता दिया। आप चाहें तो ध्यान न दें और आप चाहें तो आलोचना कर दें लेकिन धर्म के इस राजनीतिक अनुदारता की भूल भुलैया से अब अक्सर दो चार होना ही पड़ेगा।
(संजय तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)