दक्षिण एशिया में कमजोर हो रही हैं धर्मनिरपेक्ष शक्तियां, भारत के लिए चिंता का विषय

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ऐसा लगता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में धर्मनिरपेक्षता की ताकतें पूरी तरह कमजोर हो गई हैं। जब भारत और पाकिस्तान आजाद हुए थे तब भारत में धर्मनिरपेक्ष ताकतें बहुत मजबूत थीं क्योंकि उस समय महात्मा गांधी भी थे, जवाहर लाल नेहरू भी थे और सरदार पटेल भी, जो सभी धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखते थे। सरदार पटेल ने कहा था कि वे भारत में मुसलमानों की सुरक्षा की गारंटी देते हैं परंतु उनकी मुसलमानों से भी यह अपेक्षा थी कि वे भारत के प्रति वफादार रहें।

नेहरू जी और गांधी जी के अलावा पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने भी यह घोषणा की थी कि वे धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर हैं। 14 अगस्त की रात को पाकिस्तान के कराची में सभा को संबोधित करते हुए मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने देश में रहने वाले सभी नागरिकों को – चाहे वे किसी भी धर्म को मानने वालों हों या किसी भी धर्म में विश्वास न करते हों – आश्वासन दिया था कि वे पाकिस्तान के शासक की हैसियत से यह सुनिश्चित करेंगे कि पाकिस्तान की सरकार सभी नागरिकों की हर तरह से सुरक्षा करेगी। कई सालों तक यह चलता रहा। लियाकत अली आए तब भी चलता रहा। परंतु फिर पाकिस्तान में तानाशाहों की कतार लग गई।

इन तानाशाहों में सबसे पहले मार्शल अयूब थे। उसके बाद अनेक तानाशाह आए और उन तानाशाहों ने पाकिस्तान में धर्मनिरपेक्ष ताकतों को कमजोर किया। न सिर्फ कमजोर किया बल्कि पाकिस्तान में ऐसा मौका भी आया जब देश को ‘‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान’’ घोषित कर दिया गया। यह सिलसिला चलता रहा।

फिर पाकिस्तान में धर्मनिरपेक्षता से ज्यादा भाषा को महत्व दिया जाने लगा। जब पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों ने बांग्लादेश पर उर्दू लादने की कोशिश की तो बांग्लादेश के लोगों ने उसका विरोध किया। उनका कहना था कि उनके लिए इस्लाम से ज्यादा उनकी भाषा प्यारी है। फिर पाकिस्तान में चुनाव हुए। पाकिस्तान के चुनाव में उस समय के बंगाली लोगों ने बहुमत हासिल किया। परंतु पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं ने बंगाल के सर्वमान्य नेता शेख मुजिबुर्रहमान को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया और फिर शेख मुजिबुर्रहमान के नेतृत्व में एक नया देश बन गया, जिसका नाम था बांग्लादेश।

पाकिस्तान के शासकों और सेना ने बांग्लादेश के लोगों पर जबरदस्त अत्याचार किए। इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश में रहने वाले लोगों की सहायता की। बड़ी संख्या में बांग्लादेश में रहने वाले नागरिकों ने हिन्दुस्तान में शरण ली और अंततः एक दिन इंदिरा गांधी ने लोकसभा में यह घोषित किया कि शीघ्र ही आप ढाका को एक नए देश की राजधानी के रूप में पाएंगे।

इस तरह भारत के अलावा बांग्लादेश में भी धर्मनिरपेक्ष ताकतें मजबूत हो गईं। शेख मुजिबुर्रहमान ने स्पष्ट रूप से कहा कि वे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में विश्वास करते हैं। परंतु कुछ दिन बाद बांग्लादेश में भी गृहयुद्ध छिड़ गया और इस गृहयुद्ध में शेख मुजिबुर्रहमान और उनके पूरे परिवार को मौत के घाट उतार दिया गया। शेख हसीना उनके परिवार की एक मात्र ऐसी सदस्य थीं जो बच गई थीं क्योंकि संभवतः वे उस समय जर्मनी में थीं। परंतु भारत और बांग्लादेश दो बड़ी धर्मनिरपेक्ष ताकतों के रूप में उभर कर आए। शेख मुजिबुर्रहमान की बेटी शेख हसीना ने बांग्लादेश का शासन अपने हाथ में लिया और कई बड़ी ताकतें उनके साथ थीं। परंतु बीच-बीच में फिर वहां पर धर्मनिरपेक्षता कमजोर होती गई और अंततः एक ऐसा मौका आया कि बांग्लादेश की शासक शेख हसीना-जो की धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करती थीं-पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे। अंततः उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा और भारत में शरण लेनी पड़ी।

नेपाल में भी राजशाही थी परंतु धीरे-धीरे राजशाही के विरुद्ध आवाजें उठने लगीं और कम्युनिस्ट पार्टी ने बड़ी ताकत के साथ वहां अपनी सत्ता स्थापित कर ली। परंतु वह सत्ता भी ज्यादा दिन नहीं चल पाई। यद्यपि राजशाही वापस नहीं आई पर वहां पर मिलीजुली सरकारें बनीं जिनमें कम्युनिस्टों के साथ-साथ ऐसी ताकतें भी थीं जो कम्युनिस्ट विचारधारा में विश्वास नहीं करती थीं।

इस समय नेपाल में चुनाव की तैयारी चल रही है। शीघ्र ही वहां वोटिंग होने वाली है। कौन सफलता पाएगा यह कहना बहुत मुश्किल है परंतु यह निश्चित है कि नेपाल में अब धर्मनिरपेक्ष ताकतें इतनी मजबूत नहीं रहेंगी जितनी कम्युनिस्ट पार्टी के राज में थीं। इस तरह अब पाकिस्तान और बांग्लादेश इस्लामिक देश हैं और नेपाल में भी कम ही लोग धर्मनिरपेक्ष हैं।

इस बीच हमारे देश में भी अब ऐसे लक्षण नजर आ रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता कमजोर हो जाएगी। पहले आरएसएस भारतीय संविधान में विश्वास नहीं करता था और भारतीय झंडे को नहीं फहराता था, मगर आरएसएस ने भारतीय संविधान के अंतर्गत ही सत्ता संभाली है। अभी अयोध्या में मंदिर का झंडा फहराते समय माननीय नरेन्द्र मोदी ने जो भाषण दिया है उसमें कहीं इस बात का इशारा नहीं है कि वे संविधान के मूल तत्वों में विश्वास करते हैं। परंतु आरएसएस – जो अपने आप को दुनिया की सबसे बड़ी संस्था मानता है – के मुखिया ने यह स्पष्ट कह दिया है कि भारत तो पहले से ही हिन्दू राष्ट्र है। इसे हिन्दू राष्ट्र बनाने की जरूरत क्या है?

कांग्रेस यद्यपि अपने आपको धर्मनिरपेक्ष मानती है परंतु धर्मनिपेक्षता की जड़ें मजबूत करने के लिए वह कोई खास कदम नहीं उठा रही है। यह सत्य है कि भारत की अनेक पार्टियां चाहे वो बिहार में हों या बंगाल, उत्तरप्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में वे धर्मनिरपेक्ष तो हैं परंतु अपने बुनियादी हितों की कीमत पर धर्मनिरपेक्ष ताकतों को जिंदा रखने में कोई खास मददगार साबित नहीं हो रही हैं। इस तरह पूरे भारतीय उपमहाद्वीप जिसमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल शामिल हैं, में धर्मनिरपेक्ष ताकतें कमजोर हो रही हैं। इन्हें मजबूत करने के लिए बहुत ही संगठित और सघन प्रयासों की आवश्यकता है। यह संभव हो पाएगा या नहीं यह कहना बहुत मुश्किल है।



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