ओली के राजनीतिक संन्यास से ही होगा नेपाल के संकट का समाधान


पार्टी में तय हुआ था कि ओली पूरे 5 साल के लिए बतौर प्रधानमंत्री देश और प्रचंड पार्टी को संभालेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद ओली पर पार्टी के आदेशों को न मानने का आरोप लगने लगा। अब जब ओली और प्रचंड के बीच का तनाव चरम पर है ऐसे में ओली का राजनीति से संन्यास ही नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी और नेपाल को संकट से उबार सकता है।


प्रदीप सिंह प्रदीप सिंह
विदेश Updated On :

नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ‘ओली’ के संसद भंग करने और राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के मध्यावधि चुनाव कराने की घोषणा के बाद काठमांडू में रोज नए राजनीतिक घटनाक्रम घट रहे हैं। बागमती में अब तक बहुत पानी बह गया लेकिन ओली और प्रचंड के मन में पैठी एक दूसरे के प्रति अविश्वास की कालिमा को धोया नहीं जा सका है।

नेपाल का राजनीतिक संकट दो दलों का नहीं बल्कि सत्तारूढ़ दल के दो गुटों के बीच की लड़ाई का परिणाम है। अब संसद भंग करने की संवैधानिकता पर संविधान विशेषज्ञ और राजनेता सवाल उठा रहे हैं और सत्तारूढ़ दल ही विरोध-प्रदर्शन भी कर रहा है।

नेपाल में ओली के इस कदम का राजनीतिक विरोध करने के साथ ही कानूनी-अदालती लड़ाई भी तेज हो गयी है। नेपाल के उच्चतम न्यायालय में प्रतिनिधि सभा को भंग किए जाने के खिलाफ 13 याचिकाएं दायर हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट उस पर सुनवाई कर रहा है। और शीर्ष अदालत ने ओली सरकार और राष्ट्रपति को ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी करते हुए संसद भंग करने के अचानक लिए गए निर्णय पर लिखित स्पष्टीकरण मांगा है।

नेपाल के इस राजनीतिक घटनाक्रम पर समूचे विश्व की निगाहें लगी हुई है। हर कोई इस घटना को अपने-अपने नजरिये से देख रहा है। कुछ लोग नेपाल की इस राजनीतिक उथल-पुथल को ‘भारत और चीन’ के इशारे पर रचा गया षडयंत्र मान रहे हैं। लेकिन यह कोरी कल्पना के सिवा कुछ नहीं है।

नेपाल की राजनीति से गहरे अध्येता एवं वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरुप वर्मा-“विदेशी साजिश जैसे किसी विमर्श से इनकार करते हुए कहते हैं कि नेपाल का ताजा राजनीतिक घटनाक्रम विशुद्ध रूप से नेपाल, या कहें कि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का आंतरिक मामला है। यह ओली के एकाधिकारवादी रवैए का परिणाम है।”

नेपाल में राजनीतिक उठापटक एवं सरकार से इस्तीफा सचमुच किसी विपक्षी दबाव या बाहरी षडयंत्रों का नतीजा नहीं है। सत्ता को चलाने के लिए जरूरी बहुमत ही नहीं नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के पास 275 सांसद हैं, जो दो-तिहाई बहुमत से भी ज्यादा है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर प्रधानमंत्री ओली को सरकार से इस्तीफा देकर संसद भंग करने की सिफारिश क्यों करनी पड़ी ?

इसके लिए हम कुछ साल पीछे चलते हैं और नेपाल की राजनीति और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में जरा गौर करते हैं। दरअसल 17 मई 2018 तक हिमालयी राज्य नेपाल में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी नामक कोई दल नहीं था। वहां पर नेपाली कांग्रेस के अलावा नेकपा (एमाले) और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) जैसी  कम्युनिस्ट पार्टियां अस्तित्व में थी। एमाले-माओवादी ने मिलकर चुनाव लड़ा था और भारी बहुमत से जीत हासिल की थी।

आठ महीने के विचार-विमर्श के बाद नेपाल की दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां यानी एमाले और माओवादी सेंटर के विलय पर सहमति बनी थी, फलस्वरूप नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आयी। चूंकि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) के केपी शर्मा ‘ओली’ और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ पार्टी के शीर्ष नेता थे। इसलिए नए दल में सत्ता संतुलन बना रहे, दल में दो चेयरमैन का पद रखा गया।

पार्टी गठन से लेकर 22 दिसंबर, 2020 तक केपी शर्मा ‘ओली’ और पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ दोनों नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमैन थे। ओली को पार्टी की तरफ से कहा जा रहा था कि वे चेयरमैन का पद छोड़े लेकिन वे पार्टी के इस सलाह को नजरंदाज करते हुए प्रधानमंत्री के साथ चेयरमैन के पद पर भी बने रहे।

अब जबकि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर सिर फुटौव्वल चरम पर है।ओली को पार्टी के चेयरमैन के पद से हटा कर माधव कुमार नेपाल को प्रचंड के साथ दूसरा चेयरमैन बना दिया गया है। आश्चर्य की बात यह है कि माधव कुमार नेपाल ओली की मूल पार्टी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) के हैं।

यह बात सही है कि नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी की जड़े जमाने और राजशाही की जड़े उखाड़ने में केपी शर्मा ‘ओली’ और प्रचंड दोनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद ओली न सिर्फ अपने पड़ोसी देश भारत से संबंध खराब करने का अवसर तलाशते रहे बल्कि पार्टी के अंदर भी उनका व्यवहार तानाशाही वाला हो गया था। जबकि सच्चाई यह है कि सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी दो पार्टियों को मिलाकर गठित किया गया था। औऱ दोनों पार्टियों के बड़े नेता पार्टी और सरकार के शीर्ष पदों पर रहे। लेकिन ओली अपने रवैये से पार्टी और सरकार में शामिल वरिष्ठ नेताओं का विश्वास खोकर एक गुट तक सीमित हो गये। अब ओली के पार्टी के लोग भी प्रचंड के साथ हैं। नेपाल का ताजा राजनीतिक संकट इसी का परिणाम है।

ओली ने जिस तरह से संसद को भंग करने की सिफारिश की और राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने संसद को भंग करके मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी उससे नेपाल की राजनीति में घमासान मचा हुआ है। ओली अब अपने निर्णय को सही ठहराने के लिए पार्टी के शीर्ष फोरम को चुनौती देते हुए नये फोरम के गठन का ऐलान कर दिया है। यह सब उनकी बचकानी हरकत है। पार्टी के चंद लोगों को अपने पक्ष में करके वह अपने कृत्य को सही नहीं ठहराने की कोशिश में लगे हैं,इससे संकट और गहराता जा रहा है।

अब केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली सरकार ने राष्ट्रपति से एक जनवरी को संसद के उच्च सदन का शीतकालीन सत्र बुलाने की सिफारिश की है। और अपने मंत्रीमंडल के कुछ पुराने मंत्रियों को हटा कर नये चेहरों को शामिल किया। यह सब वो तब कर रहे हैं जब संसद भंग है। ओली की व्यक्तिगत हठधर्मिता के कारण नेपाल में राजनीतिक संकट गहराता जा रहा है।

275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा को भंग करने के सरकार के फैसले के खिलाफ दायर रिट याचिकाओं पर प्रधान न्यायाधीश चोलेंद्र शमशेर राणा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने प्रारंभिक सुनवाई के बाद सदन को भंग करने के लिए सरकार द्वारा की गई सिफारिशों और उन्हें मंजूरी देने की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के आदेश की मूल प्रति भी 10 दिनों के भीतर पेश करने को कहा है।

वहीं नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी ने ओली को संसदीय नेता के पद से हटा दिया है। पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ और माधव कुमार नेपाल के बीच हुई एक बैठक के बाद ओली को पद से हटाने का निर्णय लिया गया। पार्टी ने प्रचंड को संसदीय दल का नया नेता नियुक्त किया है, जिसे आमतौर पर नेपाल सरकार में शीर्ष पद का दावेदार माना जाता है।

माधव कुमार नेपाल ने प्रचंड को संसदीय दल के नेता के रूप में प्रस्तावित करते हुए कहा, “ओली ने कई गलतियां कीं .. इसलिए हम उन्हें पार्टी अध्यक्ष और संसदीय दल के नेता के पद से हटाने के लिए मजबूर हुए।” नेपाल ने कहा, “अगर वह अपनी गलती मानते हैं और माफी मांगते हैं, तो हम उन्हें पार्टी में फिर से स्वागत करने पर विचार कर सकते हैं।”

नेपाल में विवाद दो पार्टियों के बीच नहीं है, बल्कि सत्ताधारी पार्टी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) में ही है। एनसीपी में दो धड़े बन गए हैं। एक है  केपी शर्मा ओली का और दूसरा धड़ा है पूर्व पीएम पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ और माधव कुमार नेपाल का। प्रचंड एनसीपी के चेयरमैन भी हैं। और माधव कुमार नेपाल भी पूर्व प्रधानमंत्री हैं।

कहा जाता है कि पार्टी में तय हुआ था कि ओली पूरे 5 साल के लिए बतौर प्रधानमंत्री देश और प्रचंड पार्टी को संभालेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद ओली पर पार्टी के आदेशों को न मानने का आरोप लगने लगा। अब जब ओली और प्रचंड के बीच का तनाव चरम पर है ऐसे में ओली का राजनीति से संन्यास ही नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी और नेपाल को संकट से उबार सकता है।