ठहरकर भीतर की यात्रा करना…


यूं तो वाजदा स्वभाव से एकांत प्रिय है लेकिन उन्हें निकट से पहचानने वाले जानते हैं कि वे खुद से भूली हुई रहती हैं। आसमान, चांद और सितारों की सोहबत में रहने वाली वाजदा को दर्शन, अध्यात्म, अमूर्तन और रहस्यवाद खींचता है। इन सब के प्रति वे प्रायः कौतूहल में रहती हैं। नफासत और सादगी उनका सौंदर्य है। चित्रकला में पीएचडी कर चुकी वाजदा अपने चित्रों में हमेशा ही रंगों की वर्णमाला को नए सिरे से पढ़ने और समझने के लिए डूबी रहती हैं।



वाजदा खान
आसमान ज्यादा नीला और शफ्फाक है, सूरज ज्यादा चमकीला। पेड़, पत्तियां, पौधे ज्यादा ताजे हरे हैं। परिन्दों की चहकती आवाज़ में शहद घुला प्रतीत हो रहा है। ढेर सारा हरा रंग हवा के साथ लहराता, बल खाता, नीले, सफेद, आसमानी आसमान को रह रहकर स्पर्श करता हुआ, सूखी-पीली पत्तियां हवा में नृत्य करती ज़मीन पर गिरती-बिखरतीं। पत्ती विहीन शाखें जैसे जश्न मनाती हों अपने निर्वाण का। कई शाखों पर शिशु पत्तियों का आगाज़, जैसे कुछ शुभ आगमन की सूचना। क्या आजकल मुझे ऐसा अधिक दिखाई दे रहा है या हमेशा से ऐसा था, पर मुझे नहीं दिखा। क्या यही एकांत में जीना है?

सुबह-सुबह चिड़ियों की चहचहाहट की मीठी ध्वनि से मानों कानों में संगीत घुल जाता है। मन जैसे तरोताजा हो जाता है, पूरे दिन के लिये। सड़क पर इक्का दुक्का वाहन की आवाज़, घर के सामने हरित पार्क में पसरा सन्नाटा। पर सन्नाटा कहां? किस्म किस्म की चिड़ियों की चहकार, प्यारी गिलहरियों की नाजुक आवाज़ें, फिजा में बिखरती हवा के संग इधर-उधर डोलतीं। उनकी आवाज़ें सुनती हूं तो सोचती हूं पेड़ों की हरी पीली पत्तियों में कुछ छुपे, कुछ दिखायी देते ये सभी पक्षी, क्या बातें करते होंगे आपस में, इन फुर्सत के पलों में। शायद अपना दुख-सुख साझा करते होंगे? निश्चय ही उन्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि आजकल मानव लोक कहां लोप हो गया। जरूर आपस में चर्चा करते होंगे कि सारी सड़कें सूनी क्यों हैं? कोई शोर नहीं सुनाई देता, किसी तरह का कोई प्रदूषण भी नहीं। क्या उन्हें समझ में आता होगा यह सब? कितने खुश होते होंगे वे खुले चमकीले नीले आकाश के नीचे, पृथ्वी पर उगे हरे पेड़ों की टहनियों, शाखों पर फुदकते, कुहुकते, चहकते। क्या वे इस तरह के सुन्दर जीवन की कल्पना नहीं करते होंगे? आह, कैसी कर्णप्रिय स्वर लहरियां हैं उनकी। मानों सारा संगीत उन्हीं की बोली से उपजा हो।

कैसी शान्त चमकीली सड़कें हैं। वह शोर जिसे न सुनने की आदत इतनी जल्दी पड़ गयी हमें, जब पुन: शुरू हो जायेगा तो कैसे सहन होगा। हालांकि इस खूबसूरत सन्नाटे और सुकून के पीछे कितनी भयानक सच्चाई छिपी है कि याद करने को जी नहीं चाहता। इन्सान की फितरत है कि अपनी गलतियों से कोई सबक न लेते हुए सब कुछ सामान्य होते ही ये आकाश, सड़कें, पेड़-पत्तियां, फिजा सभी कुछ धूल, धुएं, वाहनों की कर्कश ध्वनि से पुन: भर जायेंगे। सारे खूबसूरत मासूम पंछी न जाने कहां लोप हो जाएंगे। कहाँ पनाह पाते होंगे आखिर पेड़ों की अंधाधुन्ध कटाई में।

इटली, अमेरिका, फ्रांस इत्यादि देशों में कोरोना से उपजे विनाश को देख सुनकर मन इतना द्रवित है कि किसी काम पर ध्यान ही नहीं केंद्रित हो पा रहा और पश्चाताप अलग से कि अचानक मिले इस समय का सदुपयोग मैं नहीं कर पा रही हूं। इतना क्रूर और भीषण वक्त हम पहली बार देख रहे हैं। सारी दुनिया का समय एक साथ जैसे एक जगह रुका हुआ है। क्या पृथ्वी को प्रदूषण मुक्त करने, पर्यावरण में सन्तुलन बनाये रखने के लिये इतनी बड़ी कीमत देनी होगी? अब भी मनुष्य न चेता तो?

परन्तु धीरे धीरे खुद को सान्त्वना देती हूं। हर घटित का अच्छा और बुरा पक्ष होता है। यह बुरा वक्त भी बीत जाएगा। मगर इस बुरे दौर का अच्छा पक्ष ये है कि हम खुद अपने साथ हैं अपने भीतर। हमारे अलावा कोई नहीं, न भीड़, न कोलाहल, न कोई भागमभाग और न किसी से मेल मुलाकात। हम खुद अपने में अवस्थित अपने एकांत के साथ हैं। देखा जाए तो यह खुद के विश्लेषण करने का समय है, खुद से कन्फेशन करने का समय है, आत्म स्वीकृति का समय है। वैसे तो कलाकार अपने मन के एकांत में ही रहता है। एकांत में रचता है, गुनता है। इसीलिये कुछ अतिरिक्त एकांत या समय उपलब्ध हो रहा हो, मुझे ऐसा नहीं लगता। चित्र निर्मिति वैसे भी बहुत समय लेती है, मन के भीतर चलती है तब भी, और कैनवास पर उतरती है, तब भी। यह रचना प्रक्रिया दोनों तरह के एकांत, मन के और भौतिक एकांत में ही सम्भव है। हां, व्यर्थ की भागदौड़ से या जरूरी काम की भागदौड़ से भी जो ऊर्जा बच रही है, वह निश्चित ही इस एकांत समय में अतिरिक्त है, जो रचनात्मकता से जुड़ रही है।

दिल्ली की तेज रुखी रफ्तार व कोलाहल में मन जो कहीं खोया हुआ था, आजकल ठहरकर जैसे आत्म मंथन की प्रक्रिया में अपने भीतर लौटा हो। ऐसा नहीं कि किताबें पहले नहीं पढ़ी हैं, कविता पहले नहीं लिखी है या रंगों रेखाओं से पहली बार मुखातिब हूं। बस, जो ये इतना सुकून फिजाओं में पसरा हुआ है वह इतना नया है कि उसके साथ जैसे मैं अपनी समस्त रचनात्मकता को पुनर्नवा कर रही हूं ठहर कर।

आजकल का एकांत मुझे उस समय की याद में ले जाता है, जो इलाहाबाद में छूट गया। छोटा सा घर, उसी में स्टूडियो मगर खूबसूरत पेड़ों के झुरमुटों, लतरों से घिरा, तितली, गौरैया, तोता, कौआ, कोयल, जुगुनू, गिलहरी, गुलाब, गेंदा, डहेलिया, गुलमेंहदी, दाऊदी, पलाश और जाने क्या क्या। चारों ओर छायी शान्ति और खुशबू के बीच में बैठकर बहुत सा कालजयी साहित्य पढ़ा। उन्हीं के बीच ईज़ल लगाकर बहुत से चित्र रचे। खूबसूरत रंगों में ढली शामें, नर्म ओस की सुबह, बाग बगीचे, सब वहीं छूट गए दिल्ली आने के बाद। इलाहाबाद में घर प्रयाग रेलवे स्टेशन के बहुत पास था। अक्सर हम सुबह जाकर वहां बैठते, प्लेटफॉर्म खाली रहता, घंटों रेखांकन बनाते चुपचाप बैठकर, सूरज को उगता देखते। इसके साथ ही याद आता है मुझे दिल्ली की गढ़ी कला कुटीर का एकांत।

दिल्ली आते ही ललित कला अकादमी के रीजनल सेन्टर गढ़ी आर्टिस्ट स्टूडियो में काम करने का अवसर मिला। वैसे तो वहाँ बहुत सारे स्टूडियो हैं, मगर सबकी अपनी अपनी निजता है। उस वक्त दिल्ली के मकान जिसे जनता फ्लैट कहा जाता है, के कमरे इतने छोटे होते कि लेटो तो पैर सामने वाली दीवार से जा टकराये। वे कमरे कम, दड़बे ज्यादा लगते, मुझे उनमें घबराहट होती। मगर फाके के दिनों में सिर छुपाने के लिये थोड़ी सी जगह भी बहुत लगती है। ऐसे में गढ़ी का सुरम्य वातावरण, हरसिंगार, आम, अशोक, जामुन आदि तमाम वृक्ष। तरह तरह के रंग बिरंगे फूल व लॉन में बेन्च पर अकेले बैठकर उन्हें घंटों देखना, रेखांकन करना मेरा शगल था। प्रथम तल पर स्थित स्टूडियो की खिड़की से आकाश में बादलों का आपस में बातें करते देखना, उनका तेजी से इधर उधर भागना, जैसे सब मेरे भीतर के एकांत में रच बस जाते। जो अनेक रंग, आकार और शब्दों का रूप ले लेते कई बार, तो कुछ स्मृति कोष में संचित हो जाते। दड़बेनुमा घर से निकलकर प्रदूषण से भरी सड़कों को पार करते गढ़ी में पहुंचते ही मुर्झाया कलाकार मन जैसे खिल उठता। कई बार सहसा छूट जाता यहां कि तेज रफ्तार, भीड़ और बेगानेपन में मेरा एकांत। तब सोचती कि मेरी रचनात्मकता कैसे जीवित रहेगी। बहरहाल, मेरा यह सब लिखने का तात्पर्य इतना है कि एक बार फिर से उसी तरह की निजता व शान्तचित्त होकर काम में रम जाने की अनुभूति हो रही है। भले ही इसकी वजह कुछ और है।

घर की बालकनी में नीम के पेड़ के सानिध्य में बैठकर जस्टिन गार्डर की पुस्तक ‘सोफी का संसार’ (अनुवाद सत्यपाल गौतम) को आज पढ़कर खत्म किया। साढ़े चार सौ पन्ने की इस पुस्तक को किसी न किसी वजह से पढ़ पाना सम्भव नहीं हो पा रहा था, सो अब जाकर सम्भव हो पाया। दर्शन के अमूर्त प्रश्नों पर आधारित यह पुस्तक दर्शनशास्त्र में रुचि रखने वालों के लिये अच्छी पुस्तक है। किताब की लेखन शैली अत्यन्त रोचक व पठनीय है। जब तक मैं इस घर में शिफ्ट नहीं हुई थी, उस वक्त इसके पास वाले मकान में रहना होता था। मैं रोज दूर से इस नीम के पेड़ को देखा करती और सोचती, काश.. इसके सानिध्य में बैठकर कुछ रचने गुनने को मिले तो क्या बात हो? जैसे इलाहाबाद में पेड़ों की झुरमुटों के बीच पेन्टिंग बनाती या पुस्तकें पढ़ती थी। और जब मुझे इस घर में शिफ्ट होने का अवसर मिला तो कनफोड़ू ट्रैफिक की वजह से एक दिन भी बालकनी में बैठकर लिखना, पढ़ना, रचना नहीं हो पाया, वह तमन्ना अब जाकर पूरी हुई।

परन्तु जहां ये खूबसूरत सन्नाटा, पंछियों की आवाजें, गिलहरियों का शाखों पर उछलना, कूदना, जमीन पर गिरती पीली पत्तियों व उनके ढेर, जिसमें अनेक मूर्त-अमूर्त आकार परिकल्पित होते, मन को सौन्दर्यात्मक भाव व प्रसन्नता से भरते, वहीं रात में जब कुत्ते व सियारों के समवेत स्वर में विलाप करने की तेज आवाजें आती तो यह समय, यह एकांत का सन्नाटा बेहद डरावना प्रतीत होने लगता है। मन पर एक अजीब किस्म की उद्विग्नता छा जाती है। कितनी आशंकायें मन में जन्म लेने लगती हैं। तब लगता है कि कैसा है यह समय कि हम बहुत खुश भी नहीं हो पा रहे हैं और उदास भी नहीं हो पा रहे हैं।

मैं जिस घर में रहवासी हूं उसके मकान मालिक यानी अंकल को रोज मैं मकान के गेट के पास चहलकदमी करते व लगातार फोन पर बातें करते हुए देखती हूं। उनकी अपनी एक संस्था है जिसके द्वारा इस विपत्त समय में लोगों की सहायता करने में जी जान से जुटे हैं। वे फोन पर बराबर संस्था के लोगों को ठीक प्रकार से काम करने का निर्देश देते रहते हैं। उनकी यह आजकल रोज की दिनचर्या है सैकड़ों जरूरतमन्द लोगों के लिये खाना बनवाकर उनकी बस्तियों में बंटवाना, जिन्हें एक वक्त का भी खाना नसीब नहीं हो रहा है। इस निर्मम समय में एक जिम्मेदार नागरिक की तरह अपने उत्तरदायित्व समझते हुए, अपने संस्था के सदस्यों के साथ अंकल दाल, चावल के पैकेट तथा अन्य रोजमर्रा की सामग्री का भी वितरण दूर दूर तक करवाते हैं। खबरों में पढ़ती हूं कि दूरदराज में कितने लोग भूखे पेट सोने के लिये बाध्य हैं, मन बहुत आहत होता है, यह सब पढ़ सुनकर। दूर ही क्यों घरों में काम करने वाली बाइयां इस समय कितनी क्राइसिस में जूझ रही हैं। मेरे पास बाई का एक दिन फोन आया कि दीदी बहुत परेशानी है। न खाने को कुछ है और पैसा भी नहीं है, क्या करूं। किसी तरह से कॉलोनी के गेट तक आयी वह। कॉलोनी के अन्दर आने वाले सभी रास्ते इस समय बन्द कर दिये गये हैं। कुछ पैसे और अंकल से दाल चावल का पैकेट लेकर साथी गोकर्ण उसे वहां बाहर के गेट तक देने गये, तब मन को थोड़ा तसल्ली हुई।

कभी कभार फोन पर बातें करते हुए अंकल के कुछ शब्द मुझे सुनायी पड़ जाते हैं। ‘लकड़ियां कम पड़ रही हैं’, ‘अन्तिम निवास’ जैसे शब्द मेरे कानों में पड़े। कितनी असहाय स्थिति है। संसार की नि:सारता का बोध होने लगता है। जिस वजह से यह शांति, यह समय हमें मिला है। वह इतना क्रूर क्यों है। प्रकृति इतनी कठोर कैसे हो गई। कभी कभार मन को परेशान करने वाले ख्याल तीव्रतर होते जाते हैं। आखिर क्या है हमारा पृथ्वी पर जन्म लेने का उद्देश्य? क्या करने आए हैं हम और क्या कर रहे हैं? एक क्षण भी न लगे इस नश्वर देह को मिट्टी में बदलने में। फिर भी लोभ, लालच, हिंसा, नफरत से पटा पड़ा है इंसान का मन। फिर लौटती हूं अपने रंगों-रेखाओं पर। बार बार लौटती हूं, जहां शायद अपने होने की सार्थकता पा सकूं, अंशमात्र ही सही, क्षणिक खुशी ही सही। मगर वही उदासी घर करने लगती है। आने वाला समय और विकट होने वाला है। इसके बाद क्या होगा? इतने दिनों तक पृथ्वी के बन्द होने पर क्या होगा लोगों के भविष्य का। आने वाले समय में आर्थिक मंजर कितना भयंकर हो सकता है, ये सब ख्याल भी इस एकांत समय में मन में चक्कर काटते रहते हैं।

बहरहाल, इस घोषित एकांत का अब तक का कुल जमा हासिल इतना ही है कि अपनी बिखरी पड़ी सारी कविताओं को एक जगह एकत्र कर पाण्डुलिपि की शक्ल प्रदान कर दी है। कुछ नई भी रच डालीं पाण्डुलिपि बनाते बनाते। दो एक किताबें पढ़े जाने के इंतजार में लगी हैं। निर्मल वर्मा की ‘लेखक की आस्था’, हालांकि मैं इसे पढ़ चुकी हूं। परन्तु काफी पहले, अब पुन: नई दृष्टि, नए विचारों के साथ पढ़ना चाहती हूं। मेरी राय में हर कलाकार को यह किताब पढ़नी चाहिये। इससे उनकी सृजनात्मक सोच को धार मिलेगी। इसके अलावा ‘भारतीय रहस्यवाद’ पर एक पुस्तक और लुडवन विटगेन्स्टाइन की ‘ट्रेक्टेटस लॉजिको- फिलोसॉफिकल्स’ (अनुवाद अशोक वोहरा) पाश्चात्य दर्शन पर आधारित है। ये सब क्रम में लगी हैं पढ़ने के लिये।
  
स्टूडियो में कई नये कैनवास चित्र शुरू करने के लिए सामने रखे हैं। परन्तु वे अभी कोई रूप-अरूप लेने की प्रक्रिया के बीच में हैं। अभी मैं उनके बारे में कुछ नहीं कह सकती। मुझे अपनी रचना प्रक्रिया के लिये बेहद धीमा एकांत मुफीद होता है। अलबत्ता पहले के दो अधबने चित्र (3×4 फीट) जरूर पूरे किये हैं। जब भी कोई पेन्टिंग पूर्ण होती है, मुझे बेहद खुशी का अनुभव होता है। कम से कम यह खुशी दूसरे चित्र के शुरू होने तक तो बनी ही रहती है। यही हैं हमारे भाव, यही है हमारी संवेदना। मन, वचन और कर्म से रचनात्मक बने रहना। स्टूडियो में चारों तरफ नए पुराने बने चित्र एक साथ निकाल कर रखे हैं। बराबर उन्हें निरखती परखती हूं कि उसमें क्या कमी बेसी है, और है तो क्यों है। कैसे उन्हें और अच्छे ढंग से और सकारात्मक तथा सौन्दर्यात्मक रूप में विकसित किया जा सकता है। सोते-जागते उन्हीं के बीच में रहते यह प्रक्रिया भी निरन्तर चलती रहती है। जैसा कि मैंने पहले कहा कि यह निरीक्षण का समय है। रचना में डूबे रहने का समय है।

बालकनी में नीम के पेड़ के सानिध्य में बैठने और पढ़ने व रेखांकन करने का सिलसिला, सामने बने पार्क के घने पेड़ों की हरियाली को महसूस करते, पंछियों का संगीत सुनते और पेड़ों की पत्तियों से छन छन कर आते चन्द्रमा के प्रकाश में डूबे-डूबे लगता है जैसे मैं प्रकृति और अपनी रचनात्मक अनुभूति के बहुत करीब आ गयी हूं। 

(वाजदा खान कवयित्री एवं चित्रकार हैं।)