
एक जानकारी के मुताबिक़ कोरोना के इलाज पर होने वाले खर्च और तमाम तरह के दूसरे खर्चों की वजह से सरकारी खजाने पर बोझ इतना बढ़ गया है कि सरकार को बड़े पैमाने पर सरकारी खर्चों में कटौती करने को विवश होना पड़ रहा है। इसके साथ ही करीब एक महीने से चले आ रहे राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की वजह से खेती से लेकर बागवानी, उत्पादन और व्यापार-व्यवसाय तक हर कामकाज के ठप्प होने का प्रतिकूल असर भी सरकारी खजाने पर पड़ा है।
देश के आर्थिक हालात इस कदर बिगड़ गए हैं कि सरकार को एक-एक पैसा खर्च करने के लिए फूंक-फूंक कर कदम उठाने पड़ रहे हैं। माना जा रहा है कि इन हालातों में केंद्र सरकार के लिए अपने 48 लाख कर्मचारियों और 65 लाख पेंशनधारियों को इस साल जनवरी से मिलने वाली महंगाई भत्ते की अदायगी रोकनी पड़ सकती है। अभी मार्च में ही तो सरकार ने अपने कर्मियों और पेंशनधारियों को 4 फीसदी की डर से महंगाई भत्ते की रकम का भुगतान करने की घोषणा की थी। अब ऐसा लगता है कि चाहने के बावजूद सरकार ऐसा न करने को विवश हो सकती है। ऐसा इसलिए भी लग रहा है क्योंकि कोरोना के इलाज और इससे जुड़े दूसरे इंतजामों में सरकार का इतना पैसा खर्च हो चुका है कि अब उसके पास महंगाई भत्ते की रकम अदा करने लायक धन नहीं बचा है।
प्रसंगवश एक गौरतलब तथ्य यह भी है कि पिछले साल 2019 में केंद्र सरकार ने सरकारी कर्मचारियों और पेंशनधारियों को 5 फीसदी की दर से महंगाई भत्ते का भुगतान किया था जिसकी वजह से महंगाई भत्ते की दर 12 फीसदी से बढ़ कर17 प्रतिशत हो गयी थी। लगता है कि मूल वेतनमान में होने वाली इस 21 फीसदी की बढ़ोत्तरी से केन्द्रीय कर्मचारी और पेंशनधारी इस साल वंचित रह जायेंगे। महंगाई भत्ते में बढ़ोत्तरी हर साल जनवरी के महीने से लागू होती है चाहे इसकी घोषणा साल के किसी भी महीने में क्यों न करे।
सरकारी खर्च में कटौती के ऐसे ही उपायों में एक उपाय इस रूप में भी देखने को मिल सकता है कि विगत 22 दिन पहले 1 अप्रैल 2020 से शुरू हुए वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान सभी केन्द्रीय कर्मचारियों को हर महीने एक दिन का वेतन राष्ट्रहित में पीएम केयर फण्ड में जमा भी करवाना पड़े। इस आशय का एक विचार वित्त मंत्रालय ने सरकार को दिया है। अभी इस मामले में अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सका है। वित्त मंत्रालय के इस प्रस्ताव पर केंद्र के सभी मंत्रालयों और विभागों में विचार किया जा रहा है।
शुरुआती दौर में केन्द्रीय प्रतिरक्षा और सुरक्षा बलों से जुड़े मंत्रालयों और विभागों में ऐसे किसी प्रस्ताव को उचित नहीं माना जा रहा है और कई विभागों ने वित्त मंत्रालय द्वारा भेजे गए वेतन कटौती संबंधी ऐसा प्रस्ताव के प्रति असंतोष भी जाहिर किया है, फिर भी अगर सभी मंत्रालय इस प्रस्ताव से सहमत होते हैं तो केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों को अगले साल मार्च के महीने तक हर महीने अपने वेतन से एक दिन के वेतन की कटौती करवानी ही होगी। केन्द्रीय कर्मचारियों के वेतन से होने वाली यह कटौती कोरोना वायरस से लड़ने के क्रम में पीएम केयर फण्ड में जमा की जायेगी। इसके अलावा सरकार ने केन्द्रीय मंत्रियों और अधिकारियों के देश-विदेश के दौरों और इस तरह के अन्य खर्चों में भी कटौती करने का फैसला लिया है।
एक अन्य जानकारी इस सम्बन्ध में यह भी मिली है कि कम से कम एक साल यानी इस वित्त वर्ष के दौरान सरकारी कर्मचारियों के तबादलों और पोस्टिंग के साथ ही सेवानिवृत होने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों के सेवा विस्तार में भी प्रतिबन्ध लगाने की उम्मीदें बढ़ गई हैं। तबादलों के सम्बन्ध में एक दिलचस्प बात यह भी सामने आई है कि एक साल में केंद्र सरकार के कुल 48 लाख कर्मियों में औसतन दस लाख का देश के एक स्थान से दूसरे स्थान को तबादला होता है या फिर पोस्टिंग होती है। एक कर्मी के तबादले या पोस्टिंग में ट्रांसपोर्ट का बिल ही करीब डेढ़ लाख के आसपास आता है। इस लिहाज से देखें तो तबादला पोस्टिंग में ही हर साल सरकार का करोड़ों रुपया खर्च हो जाता है। अगर कोरोना की वजह से ट्रान्सफर पोस्टिंग में एक साल के लिए ही सही प्रतिबन्ध लगता है तो यह रकम भी कोरोना के इलाज और इंतजाम में काम आ सकती है।
कोरोना के बाद क्या होगा ?
कोरोना तो देर सबेर निपट ही जाएगा असली दिक्कत तो बाद में सामने आयेगी जब लोगों के सामने बेरोजगारी का संकट खड़ा होगा। कोरोना की वजह से होने वाले आर्थिक संकट का सामना न केवल भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों को झेलना पड़ेगा बल्कि अमेरिका जैसे बड़े देशों के सामने भी आर्थिक महामारी का विकराल और रौद्र रूप खड़ा होगा। यूरोप और अमेरिका के संपन्न पश्चिमी देश तो एकबारगी इस समस्या का सामना कर भी लेंगे लेकिन भारत जैसे देशों को तब और दिक्कत आयेगी जब इन संपन्न देशों की सरकारें इन देशों में काम कर रहे भारत जैसे देशों के कामगारों को बाहर का रास्ता दिखाने की वैधानिक कवायदें शुरू कर देंगी।
अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति ने तो अपने देश के मूल नागरिकों के रोजगार संबंधी अधिकार सुरक्षित रखने की दिशा में ऐसा कोई क़ानून बनाने की पहल शुरू भी कर दी है। अगर अमेरिका की देखा-देखी दूसरे देशों ने भी ऐसा ही करना शुरू कर दिया तो भारत के सामने बहुत बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा। कल्पना ही की जा सकती है कि जब विदेशों से लाखों की तादाद में बेरोजगार होकर लोग भारत का रुख करेंगे तो भारत की क्या हालत हो जायेगी।
अमेरिका तो राजनीतिक कारणों से भी ऐसा करना चाह रहा है क्योंकि मौजूदा राष्ट्रपति ट्रम्प को दुबारा अपनी जीत सुनिश्चित करवाने के लिए ऐसे ही कुछ काम करने होंगे जिससे वह यह स्थापित कर सकें कि अपने देश के नागरिकों की बेरोजगारी की उनको कितनी चिंता है। अगर ऐसा कोई क़ानून अमेरिका की संसद राष्ट्रपति के चुनाव से पहले पारित कर देती है तो उसका फायदा ट्रम्प को मिल भी सकता है। ऐसी स्थिति में वो विदेशी जो अमेरिका के वैधानिक नागरिक नहीं हैं उन्हें वह देश छोड़ना ही पड़ेगा और जब ये लोग अपने मूल देशों की तरफ वापस लौटेंगे तब उन देशों में बेरोजगारी का क्या आलम होगा, इसे सहज ही समझा जा सकता है।
(लेखक दैनिक भास्कर के संपादक हैं।)