COVID-19: सुखद पृथ्वी दिवस


कोरोना की वजह से पूरी दुनिया की चहल-पहल पर लॉकडाउन का पहरा लगा हुआ है। इसलिए पृथ्वी दिवस के आयोजन भी ऑनलाइन तक ही सिमट कर रह गए। संयुक्त राष्ट्र संघ के पदाधिकारियों से लेकर दुनिया के सभी राष्ट्र प्रमुखों और वैश्विक स्तर पर काम कर रहे कुछ ख़ास लोगों के बीच इन्टरनेट के जरिये संदेशों का आदान-प्रदान भी सांकेतिक रूप से ही हुआ और इस तरह बहुत ही शांति के साथ पचासवां पृथ्वी दिवस आयोजन एक स्वच्छ वातावरण में संपन्न हो गया।



हर साल 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। इस बार उस ताम-झाम से तो नहीं मनाया गया जिस ताम-झाम से हर साल मनाया जाता है। कह सकते हैं कि कोरोना की वजह से हर साल पृथ्वी दिवस के नाम पर होने वाला अरबों-खरबों रुपये की फिजूलखर्ची बच गई। कोरोना की वजह से पूरी दुनिया की चहल-पहल पर लॉकडाउन का पहरा लगा हुआ है। इसलिए पृथ्वी दिवस के आयोजन भी ऑनलाइन तक ही सिमट कर रह गए। संयुक्त राष्ट्र संघ के पदाधिकारियों से लेकर दुनिया के सभी राष्ट्र प्रमुखों और वैश्विक स्तर पर काम कर रहे कुछ ख़ास लोगों के बीच इन्टरनेट के जरिये संदेशों का आदान-प्रदान भी  सांकेतिक रूप से ही हुआ और इस तरह बहुत ही शांति के साथ पचासवां पृथ्वी दिवस आयोजन एक स्वच्छ वातावरण में संपन्न हो गया।

जिस शालीन तरीके से यह सब हुआ उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि इस बार पृथ्वी दिवस बहुत ही सुखद रहा। सुखद इसलिए भी रहा कि कोरोना वायरस के डर से दुनिया के करोड़ों-अरबों लोगों को समुद्र के किनारे जाने का मौका नहीं मिला और अपने ही घरों तक सिमट कर रहना पड़ा। जिससे नदियों के तटों  पर शहरों  में गंदे नालों  से मिलने वाला  जहरीला  रसायन युक्त काला पानी नदियों में  नहीं मिल सका  और सड़कों पर आवाजाही न  होने की वजह से  न तो  कारखानों  का काला धुंआ बाहर आया और न ही और वाहनों  के धुएं से वातावरण को  प्रदूषित होने का कोई मौका नहीं मिला। ऐसे में पृथ्वी को साफ़ होना ही था। पृथ्वी की इसी स्वच्छता की वजह से  पचासवां पृथ्वी  दिवस भी अत्यंत सुखद रहा।

पृथ्वी दिवस के सुखद होने का एहसास तो साफ़ नीले आसमान में दूर-दूर तक दिखाई देने वाले तारों, नदियों के साफ़ पानी, समुद्र तटों पर बेख़ौफ़ खेलते दिखाई देने वाले  मगरमच्छ और बड़ी मछलियों के परिवार, जंगलों में स्वच्छंदता से घूमते वन्य प्राणियों और  सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय होने वाले तरह-तरह के पक्षियों के कलरव से हो जाता है।

सवाल यही है कि क्या एक बार लॉकडाउन ख़त्म हो जाने पर प्रकृति की ये सहज स्थितियां उसके  बाद  भी इतनी सहज बनी रह सकेंगी। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब पूरी तरह से मानव स्वभाव पर निर्भर करते हैं। अगर मानव स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया और पूरी तरह लॉकडाउन पूर्व की स्थितियों पर निर्भर रहने की दशा बनी तो हालात पहले से भी खराब हो सकते हैं। इसके विपरीत अगर पर्यावरण विशेषज्ञों की सलाह मान कर इंसान ने अपनी जीवन शैली में आमूल – चूल परिवर्तन कर लिया तो पृथ्वी के शांत और सुखद रहने के मौजूदा को बरकरार रखा जा सकता है।

प्रसंगवश यह कहना गलत नहीं होगा कि कोरोना वायरस से उत्पन्न हुई संकट की इस घड़ी में स्वास्थ्य कर्मचारियों,  सफाई कर्मियों, पुलिस और मीडियाकर्मियों के साथ ही पर्यावरण प्रेमी विशेषज्ञों की  भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लॉक डाउन के दौरान सभी अपने-अपने मोर्चों पर डटे रहे। सभी ने कोरोना से लड़ाई में अलग-अलग तरीकों से भाग लिया। इसी दौरान पर्यावरण प्रेमी विशेषज्ञों ने जल-थल-आकाश-पाताल सभी जगह प्रदूषण से स्तर में होने वाली गिरावट पर भी पैनी नजर रखी और इसका सभी दृष्टि से विवेचना करने के बाद भविष्य के बचाव का एक खाका भी तैयार किया है।

हमारे देश में पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली एक प्रतिनिधि संस्था है, “सेण्टर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट” इसे संक्षेप में सीएसई कहा जाता है। सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण ने संस्था की एक पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ ’ के विशेष अंकों के जरिये इस पूरे प्रकरण और इसके बाद की संभावित गतिविधियों पर विशेष ध्यान रखते हुए यह समझाने की कोशिश की है कि अगर समय रहते मानव प्रकृति के स्वभाव को समझ कर उसके अनुकूल काम नहीं करेगा तो सर्वनाश सुनिश्चित है।

कोरोना वायरस के इस संकट के बहाने पृथ्वी ने दुनिया को समझने का एक मौका तो दिया है अगर मानव उसे भी नहीं समझ सका तो प्रकृति मनुष्य से बदला अवश्य लेगी। अभी तक भी पृथ्वी ने जो कुछ किया है वह एक  तरह से मानव की गलतियों का बदला लेने जैसा ही है। भविष्य के संकेत डराने वाले भी हैं और चौंकाने वाले भी। सीएसई के अध्ययन से कुछ सवाल भी खड़े हुए हैं मसलन: क्या किसी महामारी के बाद किसी शहर की परिकल्पना बदल भी सकती है? अगर ऐसा है तो फिर  इस तरह की किसी भी महामारी के बाद शहरों को अधिक मानवीय और समावेशी बनाने की जरूरत होनी चाहिए।

इसी सन्दर्भ में पृथ्वी के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि भी एक गंभीर चिंता का विषय है। पेरिस समझौते में तापमान को किसी भी हालत में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक  स्थिर  रखने पर सहमति बनी थी लेकिन इसी साल मार्च के महीने में ही पृथ्वी का तापमान 1.16 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। पर्यावरण विज्ञानियों का मानना है कि अगर किसी वजह से पेरिस समझौता टूट गया या फिर इस समझौते के प्रावधानों पर गंभीरता से अमल नहीं किया गया तो गर्मी की बेतहाशा मार झेलने के साथ ही दुनिया को 600 ट्रिलियन डालर का आर्थिक नुक्सान भी उठाना पड़ सकता है। यही नहीं, पृथ्वी  के तापमान में होने वाली वृद्धि अगर इसी दर  से जारी रही तो आने वाले तीन दशक के दौरान ( 2030 – 2050 ) कई ग्लेशियरों से बर्फ ही गायब हो जायेगी । तापमान  में वृद्धि के चलते ग्लेशियरों की बर्फ तेजी से पिघलना शुरू हो जायेगी और उत्तरी ध्रुव जो साल भर बर्फ से ढका रहता है, वहां गर्मियों के मौसम में बर्फ दिखना ही बंद हो जाएगा। 

पृथ्वी का यह संकट पर्यावरण को नुक्सान पहुंचाने के साथ ही बड़े पैमाने पर आर्थिक संकट का कारण भी बनेगा, एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी के वातावरण में पूरी दुनिया में 1.7 करोड़ मीट्रिक टन वजन के धूल के कण हैं जिनका कुल वजन अमेरिका की पूरी आबादी के कुल वजन से कहीं ज्यादा है। कुल मिला कर ये तमाम स्थितियां किसी अनिष्ट के ही संकेत देती दिखाई दे रही हैं। पर्यावरण विज्ञानियों की माने तो इंसान भविष्य के अनिष्ट को रोकने की ताकत तो रखता है लेकिन इसके लिए उसे अपनी लोभी प्रवृत्ति पर रोक लगानी होगी। पर्यावरण संरक्षण से ही जल, जंगल, जमीन को हर तरह के खतरे से बचाया जा सकता है लेकिन पहल तो इंसान को ही करनी होगी।

(लेखक दैनिक भास्कर के संपादक हैं।)