
अक्सर चीन को अब भी ‘कम्युनिस्ट चाइना’या साम्यवादी चीन माना जाता है। इससे तनिक असहमति है। जब चीन के वर्तमान राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार अंतिम सांस तक अपने पद पर बने रह सकते हैं, संविधान में संशोधन किया जाता है, तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इसे मार्क्सवादी या साम्यवादी या लोकतान्त्रिक दृष्टि से सही ठहराया जा सकता है?
मैं कुछ समय के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान और महात्मा गांधी हिंदी विश्विद्यालय से सम्बद्ध रहा हूं। दोनों ही जगह हिंदी सीखने के लिए चीनी विद्यार्थी आया करते थे। वार्तालाप में मैंने जाना कि कुछ को माओ त्से तुंग व चाओ उन लाई का नाम तक मालूम नहीं था। साम्यवाद के बारे में उनका तर्क था कि 1949 की क्रांति में चीन ने सीधे ही समाजवाद व साम्यवाद में छलांग लगाली थी। वह गलत था। मार्क्सवाद की दृष्टि से पहले पूंजीवाद आना चाहिए, इसके बाद समाजवाद और फिर साम्यवाद। अब हम पूंजीवाद को ला रहे हैं। इसके बाद ही अगले दो चरणों की यात्रा तय की जायेगी। सवाल उठता कि पूंजीवादी को ध्वस्त करने के लिए फिर से लांग मार्च निकाली जायेगी,रेड आर्मी लड़ेगी या सांस्कृतिक क्रांति चलाई जायेगी? उनके पास इसका स्पष्ट जवाब नहीं रहता था। वे भ्रमित हुआ करते थे.. उनका एक मात्र लक्ष्य था हिंदी सीखने के साथ साथ अंग्रेजी में महारत हासिल करना। इसके उनकी मंज़िल थी अमेरिका या यूरोप।
चीन में विदेशी कंपनियां सस्ती श्रम दरों पर माल का उत्पादन करती हैं और ऊंचे दामों पर अन्य देशों को निर्यात करती रहती हैं। चीन के आंतरिक इलाकों में गहरी विषमता है। शहरी क्षेत्रों में भी है। 1990 में चीन की यात्रा के दौरान इसकी झलकियां देखी थीं। अब तो स्थिति और भी विकट हो गई होगी !
दरअसल, हम एशियाई देश पश्चिमी पूंजीवाद की नकल तो करना चाहते हैं, लेकिन उसकी आचार संहिता, नैतिकता, मूल्यों का पालन नहीं करना चाहते. श्रम, उत्पादन, पूंजी, टेक्नोलॉजी और योग प्रतिफल का न्यायोचित वितरण नहीं करना चाहते हैं। श्रमिक का निर्मम दोहन तो करते हैं, लेकिन उसका वांछित फल नहीं देना चाहते। चूंकि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का एक छत्र राज है। अब तो उसने पूंजीपतियों के लिए मेम्बरशिप के दरवाज़े भी खोल दिए हैं। उनका प्रतिशत भी तय कर दिया है। इससे तो विकृत पूंजीवाद ही पनपेगा। साम्यवाद के नाम पर श्रमिक और किसानों से हाड़ तोड़ श्रम कराया जाएगा।
अब भारत को ही ले लें। श्रम सुधार के नाम पर अब मज़दूर 12 -12 घंटे काम करेगा। नए कानूनों के तहत वह ‘बंधक’बन जाएगा। ज़रूरी नहीं उसे न्यूनतम मज़दूरी भी मिले। कोरोना दौर में राज्य की इन हरकतों को देख कर यही लगता है कि चीन रहे या भारत, 19वीं और 20 वीं सदी में पहुंच रहे हैं। इन कदमों से कम्युनिस्ट स्टेट ज़रूर मज़बूत हो जायेगी, लेकिन व्यक्ति और समाज के रूप में चीन कमतर होता जाएगा। भारत की स्थिति भी इससे कहां अलग रहेगी। वर्तमान संकट का ध्रुव प्रश्न है कि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र राज्य के बीच न्यायोचित संबंधों को कैसे विकसित किया जाए? सभी विचारधाराओं की अन्तर्निहित सीमाएं उजागर हो चुकी हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)