
प्रकृति ने इंसान की प्रज्ञा में जीने लायक एक ही पृथ्वी बनाई है। एक ही नस्ल बनाई मनुष्यता। और एक ही धर्म बनाया है इंसानियत या मानवता। जब पूरी मानवता कोरोना काल के खतरे से उभरने में लगी है तो आधुनिक संपन्नता के गढ़ अमेरिका में नस्ली रंगभेद चल रहा है। कोरोना से सबसे प्रभावित अमेरिका में ही रंगभेद का आतंक छाया है। काले जॉर्ज फ्लॉयड की गरदन को घुटने से दबाते हुए एक गोरे पुलिस अफसर डेरिक शोविन का वीडियो दुनिया भर में देखा गया। मिनियापोलिस में सांस घुटने से फ्लॉयड ने दम तोड़ दिया। जेब में हाथ डाले पुलिसवाले ने कराहते फ्लॉयड की एक नहीं सुनी। कई दिनों से लोग अनेक अमेरिकी शहरों में प्रदर्शन कर रहे हैं। दुकानों में लूटपाट और शहरों में आगजनी हुई है। हिंसा रोकने वाली पुलिस पर ही हिंसा भड़काने के आरोप लगे।
कोरोना के अलावा वहां की पुलिस भी अपने ही लोगों की सांस घोट रही है। साठ के दशक के बाद फिर से अमेरिका में नस्ली रंगभेद बड़ा मुद्दा बना है। सवाल फिर भी वही हैं। क्या हिंसा से किसी ने कोई परिणाम हासिल किया है? क्या हिंसा से कभी कोई मुद्दा जीता गया है? हिंसा से क्या। सिर्फ और हिंसा ही नहीं बढ़ती? क्याल हिंसा से प्रेम को स्थाोपित किया जा सकता है? हालांकि ये सभी सवालों के जवाब नकारे ही जाएंगे। फिर क्यों कुछ सिरफिरे लोग समाज की समरसता को हिंसा से ठेस पहुंचाते हैं? क्यों लोगों की सुरक्षा करने वाली पुलिस से ही वहां के लोगों को असुरक्षा हो रही है? इस सब के बीच फ्लॉयड के सगे भाई ने अहिंसा की गुहार लगाई है।
दुनिया में अहिंसा के सबसे बड़े प्रवक्ता महात्मा गांधी थे। गांधीजी ने माना था अहिंसा ही उनकी पहली और आखिरी आस्था है। आंख के बदले आंख की नीति सारी दुनिया को अंधा बना देगी। लोग अगर अपने दिल साफ़ कर पाते हैं तभी सच्ची आजादी का मुल्य हैं। आज कोरोना महामारी में जब लोग अपने जीवन बचाने में लगे है तब भी अमेरिकी एक-दूसरे के प्रति वैमनस्य उगलने में लगे हैं। यह वहां के राजनैतिक नेतृत्व का लोप, और धर्म का विलोप है। हिंसा दोधारी तलवार है जो चलाने वाले, और चलाए जाने वाले दोनों को काटती है। हिंसा उसी सेब की तरह है, जो छुरी पर गिरे या छुरी उस पर। हिंसा कैसी भी हो, परिणाम समाज को ही भुगतना पड़ता हैं। हिंसा का हल हिंसा से निकालने की कोशिशों के कारण सिर्फ हिंसा ही पलती-पनपती है। इसीलिए गांधीजी ने कहा था कि हिंसा का एकमात्र हल अहिंसा से ही निकाला जा सकता है।
क्या अमेरिका को अहिंसा का पाठ नहीं पढ़ना चाहिए? अमेरिका के राष्ट्रपति उपद्रवियों पर सैन्य कार्यवाही करने की घमकी दे रहे हैं। वहां के काले और अन्य लोग भी उनके व्यवहार से खफ़ा रहे हैं। फिर कोरोना महामारी से हुई महाबंदी में नौकरी जाना, घरों में दूरी बना कर बंद रहना और रोटी के लाले पड़ना भी भीड़ के भड़कने का बड़ा कारण रहा। कोरोना के कारण मरने वालों में कालों की तादाद भी ज्यादा रही है। सारी दुनिया की तरह अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी बुरे दौर से गुजर रही है। ये सभी मानसिक उथल-पुथल पैदा करने के कारण रहे। सन् 1665 में लंदन में महामरी फैली थी। लेखक और व्यापारी डैनियल डेफॉए ने अपने पत्र – ‘प्लेग साल का बही खाता’ में लिखा था ‘यह वह समय था जब खुद की सुरक्षा इतनी प्रिय हो गई थी की दूसरों के दुख-दर्द पर ध्यान ही नहीं जाता था ….. महामारी से मौत का खौफ इतना ज्यादा था कि उसने दूसरों के प्रति प्रेम और पीढ़ा हरने का कोई स्थान नहीं छोड़ा था।’ क्या अमेरिका में भड़के नस्ली रंगभेद का यही कारण है? या अमेरिकी अपनी राजनीति से उक्ता गए हैं। अमेरिका की सत्ता पर बैठे लोगों का अहंकार साफ दिख रहा हैं।
हिंसा के सवाल पर अमेरिका में बहुत कुछ कहा और किया जा रहा है। गांधीजी का मानना था कि सिर्फ अहिंसा से ही हिंसा को सुलझाया जा सकता है। जो मन से पक्के और पवित्र हैं, वही शरीर की अहिंसा को समझ सकते है। अहिंसा का महत्व भी हिंसा के समय ही समझ आता है। ऐसी महामारी के समय में हिंसा का उपयोग क्या व्यक्तिगत या सामूहिक भय और डर को नहीं दर्शाता? समाज में भीड़ के न्याय का जो माहौल पिछले कुछ सालों में बना है उसको सभ्यता के मानदंडों से देखना जरूरी है। गांधीजी शुद्ध तौर पर राजनीतिक योजनाएं बनाते थे मगर उनपर अमल वे आध्यात्मिकता की पवित्रता से करते थे। मन की स्वतंत्रता के लिए आस्था की आध्यात्मिकता जरूरी है।
धीरज खोना,सत्य को खोना है। और अहिंसा को भी खो देना है। अमेरिका की पुलिस के प्रति लोगों का विश्वास तो उनकी अहिंसक कार्यवाही से ही जग सकता है। काले और अन्य आंदोलित लोगों को भी अहिंसक विरोध सीखना होगा। तभी घुटने टेकने वाली पुलिस की मंशा का सही मतलब होगा। अभी भी अमेरिका वेंटिलेटर पर ही है।