अगले महीने मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार रिटायर हो रहे हैं। जब भी उनसे प्रेस कांफ्रेंस में सवाल पूछे जायें तो वे शेरो-शायरी से जवाब देते हैं। सुनते हैं कुछ तुकबंदी भी कर लेते हैं। लेकिन क्या उम्मीद की जाए कि उनके पदासीन होते हुए चुनाव आयोग की साख पर जो सवाल उठे हैं उनका सीधा जवाब मिलेगा? फ़िलहाल अगर ईवीएम में हेराफेरी की आशंका से जुड़े सवालों को अलग भी कर दिया जाय तब भी पद छोड़ने से पहले राजीव कुमार कम से कम उन दो बड़े सवालों का जवाब दें जो पिछले कुछ महीनों में बार बार उठे हैं। उन्हें उठाने वालों ने सिर्फ़ शक ही ज़ाहिर नहीं किया बल्कि पुख्ता सबूत भी जुटाए हैं।
पहला सवाल मतदाता सूची में हेराफेरी को लेकर है। देश के हर वयस्क व्यक्ति को मतदान का अधिकार मिले और कोई भी नागरिक इस अधिकार से वंचित ना किया जा सके, इस उद्देश्य से बहुत विस्तृत और अच्छे नियम और कानून हैं। सवाल यह है कि क्या इन नियमों को ताक पर रखकर चुनाव आयोग की नाक के नीचे बीजेपी द्वारा अपनी सरकारों से मिलीभगत कर बड़ी संख्या में अपने विरोधियों के वोट कटवाये गए और बोगस वोट जोड़े गए?
यह सवाल सबसे बड़े पैमाने पर महाराष्ट्र में उठा है। पिछले साल अप्रेल और मई के महीने में हुए लोक सभा चुनाव में महाराष्ट्र में कुल मतदाता 9.29 करोड़ थे, लेकिन नवंबर में हुए विधान सभा के दौरान मतदाताओं की संख्या बढ़कर 9.70 करोड़ हो गई।
सवाल उठता है कि छह महीने के भीतर और वह भी लोक सभा चुनाव में हुए मतदाता सूची में हुए सम्पूर्ण संशोधन के बाद कोई 41 लाख की बढ़ोतरी यानी हर विधान सभा चुनाव क्षेत्र में लगभग 14,400 नए वोट क्यों जुड़े? जनसंख्या वृद्धि के हिसाब से इस अवधि में ज़्यादा से ज़्यादा 7 लाख नाम जुड़ने चाहिए थे। कांग्रेस ने आशंका व्यक्त की है कि अभी यह आंकड़ा अधूरा है, चूँकि अभी तक चुनाव आयोग ने यह नहीं बताया है कि इस अवधि में कितने नाम काटे गए हैं।
कांग्रेस के नेता प्रवीण चक्रवर्ती ने एक और सवाल पूछा है। सरकार के अपने अपने आंकड़ों के हिसाब से 2024 में महाराष्ट्र की कुल वयस्क जनसंख्या ही 9.54 करोड़ थी, यानी विधान सभा के मतदाताओं से कोई 16 लाख ज़्यादा। अमूमन मतदाताओं की संख्या वयस्क जनसंख्या से कम रहती है, चूँकि चुनाव आयोग हर व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं कर पाता है। ऐसे में मतदाता सूची का वयस्क जनसंख्या से अधिक होना एक ऐसा अजूबा है जो शक को जन्म देता है।
मामला सिर्फ महाराष्ट्र का ही नहीं है। ‘न्यूज़लांड्री’ की पत्रकार सुमेधा मित्तल ने उत्तर प्रदेश की उन दो संसदीय क्षेत्रों फर्रुखाबाद और मेरठ की पड़ताल की जहां बीजेपी बहुत कम मतों से लोक सभा चुनाव जीती थी। दोनों क्षेत्रों में उनकी रिपोर्ट ने यह साबित किया है बीजेपी की जीत के फैसले से ज़्यादा संख्या में वहाँ चुनाव से एकदम पहले वोट काटे गए थे, वोट उन्ही बूथों पर काटे गए थे जहाँ पिछले चुनाव में बीजेपी को बहुत कम वोट मिले थे, जहाँ यादव और मुस्लिम वोटर की बहुतायत थी।
इसी तरह बीजेपी के दबदबे वाले बूथों पर बड़ी संख्या में फर्जी पते वाले बोगस वोट भी जुड़े। इस जाँच ने यह भी पाया कि वोट काटते समय चुनाव आयोग द्वारा तय नियमों को ताक पर रख दिया गया था, बड़े संख्या में वोट काटने वाले कर्मचारियों ने इसका कारण “ऊपर से दबाव” बताया।
‘द स्क्रॉल’ की जांच में भी यही बात सामने आई। आम आदमी पार्टी ने यह सवाल दिल्ली विधान सभा चुनाव से पहले ही उठाना शुरू किया है और यह आरोप लगाया है कि एक विधान सभा क्षेत्र में बीजेपी दस हज़ार से अधिक नाम कटवा रही है। ऐसे में राजीव कुमार की नैतिक और संविधानिक ज़िम्मेदारी है कि रिटायर होने से पहले लोक सभा चुनाव और उसके बाद हुए विधान सभा चुनावों में हुए मतदाता सूचित के हर परिवर्तन पर एक श्वेत पत्र जारी करें।
दूसरा और भी ज़्यादा गंभीर सवाल चुनाव परिणाम को लेकर है। लोक सभा चुनाव के बाद परिणाम के आंकड़ों को लेकर अनेक सवाल उठाये गए। सवाल यह था कि चुनाव आयोग द्वारा मतदान वाले दिन शाम को दिए गए और अंतिम मतदान के आंकड़ों में इतना अंतर क्यों है, मतदान के अंतिम आंकड़े इतनी देरी से और वो भी अधूरे क्यों दिए गए?
चुनाव आयोग ने इन सब सवालों से यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि मतदान की सारी सूचना फॉर्म 17C में दर्ज होती है और उसकी कॉपी पार्टियों को दी जाती है। लेकिन जब सूचना के अधिकार के तहत फॉर्म 17C को सार्वजनिक करने की मांग हुई तो चुनाव आयोग चुप्पी लगा गया। उसके बाद दो और ठोस सवाल उठे हैं।
पिछले तीन दशकों से चुनावी पारदर्शिता पर काम कर रही संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म ने आंकड़े जारी कर के यह पूछा कि चुनाव आयोग के अनुसार ईवीएम में जितने वोट डाले गए और ईवीएम के मतों की गिनती में (पोस्टल मत को छोड़कर) जितने वोट गिने गए उसमे अंतर क्यों है? यह अंतर एक दो नहीं 543 में से 536 चुनाव क्षेत्रों में पाया गया। कई क्षेत्रों में तो जितने वोट पड़े थे उससे ज़्यादा गिने गए! हाल ही में ओडिशा के बीजू जनता दल ने चुनाव आयोग के सामने एक और बड़ी विसंगति रख उसका जवाब मांगा है।
ओडिशा में लोक सभा और विधान सभा चुनाव एक साथ हुए थे, एक ही वोटर ने एक ही जगह दो मशीनों में दो वोट डाले थे। जाहिर है दोनों वोट की संख्या एक समान होनी चाहिए थी। लेकिन एक दो जगह नहीं सभी 21 संसदीय क्षेत्रों में लोकसभा और विधान सभा क्षेत्रों के वोट में फ़रक है। ढेंकनाल में यह अंतर 4,000 वोट से अधिक है।बीजू जनता दल ने बाकायदा फॉर्म 17C के आंकड़े पेश कर उसमें और गिने गए वोट में अंतर का प्रमाण पेश किया है। मतदान की रात के बाद मतदान के आंकड़ों के बदलाव पर सवाल उठाया है।
इन मुद्दों पर पारदर्शिता से काम लेने की बजाय चुनाव आयोग ने तमाम सवालों पर पर्दा डालने का काम किया है। यही नहीं, चुनाव के नियम 93(2) में संशोधन कर दिया गया है, ताकि चुनाव आयोग को चुनाव संबंधी सारे दस्तावेज सार्वजनिक ना करने पड़ें। अब सरकार और चुनाव आयोग तय करेंगे की उन्हें क्या सूचना सार्वजनिक करनी है और क्या नहीं। मतलब दाल में कुछ काला है। राजीव कुमार के रिटायर होने से यह सवाल रिटायर नहीं होंगे।
(योगेन्द्र यादव चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं)