
समाज में महिलाओं को अबला मानने के दौर में हिंदी के एक प्रख्यात कवि की एक कविता की ये पंक्तियां, “अबला जीवन, हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी” काफी सुनी और पढ़ी जाती थीं। अब स्थितियां बदल गई हैं, समाज में नारी की स्थिति चाहे बहुत न भी बदली हो लेकिन नारी सम्मान देने के प्रतीक जरूर बदल गए हैं।
कविता की इन पंक्तियों को अगर गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस की एक पंक्ति से तुलना करें तो यह भी समझ में आ जाता है कि जिस समय समाज में नारी को बहुत सम्मान जनक स्थान नहीं दिया जाता था उस समय मेहनत मजदूरी कर अपने जीवन का भरण पोषण करने वाले समाज के दलित और वंचित तबके की स्थिति भी बहुत दयनीय थी। शायद इसीलिए तुलसीदास ने अपने महाकाव्य रामचरित मानस में एक जगह यह लिखने से भी संकोच नहीं किया कि समाज में ढोर, गंवार, शूद्र और नारी ताड़ना के ही अधिकारी हैं।
मेहनत मजदूरी कर अपना और अपने परिवार का किसी तरह पालन-पोषण करने वाला आज का यह मजदूर तबका ही है जिसे तुलसीदास ने ढोर और नारी के सामान ही ताड़ना यानी दंड का अधिकारी बताया था। समाज में आज महिलाओं की स्थिति तो पहले के मुकाबले बदली हुई कही जा सकती है लेकिन मजदूरों की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। इसीलिए इस तबके को आज भी अपने घर से हजारों किलोमीटर दूर जाकर मजदूरी करने को मजबूर होना पड़ता है।
कोरोना की वजह से पडी लॉकडाउन की मार से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला हमारे समाज का यही तबका है। अपने गांव में काम नहीं मिलने से लाखों की तादाद में देश के अलग- अलग शहरों में काम करने वाले इस तबके को शुरू में तो लॉकडाउन का रहस्य ही समझ में नहीं आया। जब पता चला कि इस बंदी के चलते उसका रोजगार चला गया है बहुत जल्दी रोजगार मिलने की संभावनाएं भी नहीं हैं, तब लगभग भुखमरी की स्थिति में इस तबके ने जैसे भी हो अपने पुश्तैनी गांव जाने का फैसला कर लिया।
घर जाने का कोई साधन नहीं था लॉकडाउन की वजह से रेल बस समेत तमाम सरकारी साधन बंद थे तो यह तबका पैदल ही हजारों किलोमीटर की याता पर निकल गया इस उम्मीद में कि एक न एक दिन तो अपनों के पास पहुंच ही जाएगा। परदेश में मरने से भला है कि मरते समय अपने लोगों के साथ हो। किसी तरह ये मजदूर अपने घर तो पहुंचे लेकिन असंख्य मजदूर किसी न किसी वजह से घर जाने के रास्ते में ही असमय मौत का शिकार भी हो गए।
इधर मजदूर अपने- अपने घर पहुंचे उधर धीरे- धीरे लॉकडाउन खुलने लगा। शहरों में काम धंधा शुरू होने लगा लेकिन परवान नहीं चढ़ सका क्योंकि काम की तलाश में हजारों किलोमीटर दूर से आया मजदूर काम बंद होने की वजह से शहर छोड़ चुका था। अजीब दास्ताँ है। मजदूर वापस जहां गया, वहाँ काम नहीं है और जहां काम है वहाँ मजदूर नहीं है। खरबूजा चाकू पर मारो या चाकू खरबूजे पर कटेगा तो खरबूजा ही। कुछ इसी तर्ज पर मारा तो बेचारा मजदूर ही गया।
लॉकडाउन से पहले अगर उसे घर जाने का थोडा वक़्त दे दिया जाता या फिर घर वापस भेजने की जो व्यवस्था सरकार ने बाद में की है वो पहले कर दी जाती या फिर शहरों में रहने वाले इस मजदूर तबके को लॉकडाउन की अवधि में उसके रहने, खाने- पीने का इंतजाम कर संतुष्ट कर दिया जाता तो न यह मारा-मारी होती और न ही अनलॉक के बाद शहरों में मजदूरों के अभाव का सामना करने की नौबत आती।
प्रसंगवश यह एक सुखद स्थिति है कि विगत मंगलवार 9 जून 2020 को देश की सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में दायर याचिकाओं का संज्ञान लेते हुए अपने ही देश में प्रवासी कहलाये जाने वाले इस मजदूर तबके के पक्ष में फैसला सुना दिया। अपने आदेश में देश की सर्वोच्च्च अदालत ने यह साफ़ तौर पर कहा है कि सभी मजदूरों का रजिस्ट्रेशन किया जाए और अदालत के फैसले के से 15 दिन के अंदर मजदूरों को उनके घर भेजा जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों से कहा कि प्रवासी मजदूरों के लिए काउंसलिंग सेंटर की स्थापना की जाए। जो मजदूर गांव में ही रहना चाहते हैं उनकी योग्यता का आंकलन कर उन्हें वहीँ रोजगार देने की व्यवस्था राज्य सरकारें करें अगर मजदूर वापस काम पर लौटना चाहते हैं तो राज्य सरकारें वापसी में भी उनकी मदद करें। अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट व्यवस्था भी दी कि पलायन के दौरान मजदूरों पर दर्ज किए गए लॉकडाउन उल्लंघन के मुकदमे वापस लिए जाएं।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के अनुपालन में केंद्र सरकार से लेकर अलग -अलग राज्य सरकारों ने भी अपने -अपने पक्ष रखे हैं। केंद्र सरकार की तरफ से जहां सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अभी तक करीब एक करोड़ प्रवासी मजदूरों को उनके घर तक पहुंचाया गया हैऔर इनमें से करीब 41 लाख मजदूरों को सड़क मार्ग और 57 लाख मजदूरों को ट्रेनों से उनके गृह राज्य भेजा गया है। उधर दिल्ली सरकार का कहना है कि दिल्ली के दो लाख मजदूर वापस नहीं जाना चाहते।
बिहार सरकार ने 28 लाख बिहारी मजदूरों के घर वापस आने की बात कही है। कमोबेस देश के सभी राज्यों ने सर्वोच्च अदालत को यह समझाने की कोशिश जरूर की है कि वो अपने स्तर पर प्रवासी मजदूरों के कल्याण के लिए काम कर रही हैं लेकिन किसी सरकार ने इस बात का खुलासा नहीं किया कि मजदूरों के कल्याण को लेकर उनकी सरकार की कार्य योजना क्या है।