
लद्दाख में चीन की सीमा से लगे भारतीय क्षेत्र में जारी ताजा गतिरोध के चलते भारतीय सेना को पिछले पांच दशक में पहली बार सैन्य नुक्सान उठाना पड़ा है जो न केवल एक गंभीर मसला है बल्कि भारत के अपने पड़ोसियों के साथ अच्छे समबन्ध बना कर रखने की नीति पर कुठाराघात भी है। पड़ोसी देशों से एक के बाद एक इस तरह के धोखे मिलना बहुत चिंताजनक बात भी है।
प्रसंगवश यह मुद्दा महत्वपूर्ण भी हो सकता है कि सीमा चीन के साथ हुए ताजा गतिरोध में भारत के कितने सैनिक शहीद हुए। लेकिन इससे बड़ा मुद्दा यह है कि आखिर यह परिस्थिति बनी ही क्यों कि इसके चलते हमारे सैनिकों को शहीद होना पड़ा? ऐसे में शहीदों की संख्या से बड़ा और महत्वपूर्ण मुद्दा उन कारणों का पता लगाना होना चाहिए जिसकी वजह से चीन सीमा पर तनाव के ऐसे हालात बने हैं।
बात केवल चीन की नहीं है दूसरे पड़ोसी देशों की भी है। चीन के बारे में तो हमको पहले से ही पता है कि उसने , “ हिंदी-चीनी भाई-भाई“ का नारा लगाने के बाद भी 1962 में आक्रमण कर भारत को धोखा दिया था, फिर भी हमारी तरफ से उसके साथ अच्छे सम्बन्ध बना कर रखने का सिलसिला बना ही रहा। चीन के साथ ही भारत ने अपने सभी पड़ोसी देशों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाए रखने की यह कोशिश हमेशा जारी रखी, चाहे वो चीन, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और मालदीव कोई भी क्यों न हो।
1947 में भारत के साथ ही आजाद हुए पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ भी बेहतर सम्बन्ध बनाए रखने का यह सिलसिला जारी रहा और इन्हीं कोशिशों के चलते भारत- पाकिस्तान के बीच बस सेवा भी शुरू की गई लेकिन बदले में हमको मिला कारगिल युद्ध। हमारी कोशिश श्रीलंका जैसे द्वीपीय पड़ोसी देश के साथ भी मित्रवत सम्बन्ध बनाए रखने की रही और इसी के चलते भारत ने तमिल आतंकवाद से जूझ रहे इस देश में आतंक का मुकाबला करने में उसकी सहायता के लिए शांति सेना भी वहां भेजी।
नतीजे में भारत को मिली तमिल उग्रवाद का अपने ही देश में मुकाबला करने की एक अतिरिक्त चुनौती। इसी चुनौती का सामना करते हुए एक पूर्व प्रधान मंत्री को अपने देश के ही दक्षिण प्रांत के एक शहर श्रीपेरुबुदूर में शहीद भी होना पड़ा था। उधर नेपाल को हमने कभी भी एक मित्रवत पड़ोसी देश के अलावा कुछ नहीं समझा। हर सुख-दुःख में भारत नेपाल का सहयोगी बना रहा। इस देश के साथ युगों से हमारे धार्मिक, आध्यात्मिक, पौराणिक और संस्कृतिक सम्बन्ध रहे।
लेकिन आज वही देश अपनी संसद में नक्शा बदलने का विधेयक पास कराने का प्रस्ताव पारित कर देता है। पूरी दुनिया इस सत्य को जानती है कि नेपाल ने भारतीय सीमा वाले लिपुलेख और कालापानी नामक जिन स्थानों को नेपाली क्षेत्र के दावे के साथ नए नक़्शे में शामिल करने और उस नक़्शे को संसद से पास करवाने की धृष्टता की है उसमें भी चीन की बड़ी भूमिका है।
अपने पड़ोसी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखने की भारतीय नीति का जहां तक सवाल है , इस बारे में एक बात सबसे पहले ध्यान में रखनी होगी कि इसे राजनीति के संकुचित दलीय दृष्टिकोण से देखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। पंडित नेहरु से लेकर अब तक भारत के जिस प्रधानमंत्री ने भी पड़ोसी देशों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बना कर रखने की पहल की है, उस पहल में उन्होंने भारत के हित को ही प्राथमिकता में रखा होगा।
वैचारिक रूप से ये विषय चर्चा के केंद्र में रह सकते हैं, कि तिब्बत के मसले पर जवाहरलाल नेहरु का पंचशील के सिद्धांत पर चीन के साथ समझौता करना गलत था, या फिर कुछ लोग, राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में चीन के साथ संबंधों की मजबूती के लिए किये गए प्रयासों के साथ ही तमिल उग्रवाग का मुकाबला करने के लिए श्रीलंका का साथ देने को भी करार दे सकते हैं।
राजनीतिक विरोधियों को यह कहने से भी नहीं रोका जा सकता कि अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधान मंत्री रहते पाकिस्तान के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाने की गरज से बस सेवा की शुरुआत कर गलत काम किया था। लोग यह भी कह सकते हैं कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्ध मजबूत बनाए रखने की इसी भारतीय शैली को विस्तार देते हुए ही चीन, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, भूटान और सिंगापूर के साथ अभी तक जो भी समझौते किये वो ठीक नहीं हैं।
पड़ोसी देशों के साथ अब तक किये गए तमाम प्रयासों का राजनीतिक दृष्टिकोण से विरोध करना अलग बात है लेकिन इस विरोध की तात्विक विवेचना करने को कोई भी तैयार नहीं है, विरोध करने वाले किसी भी राजनीतिक व्यक्ति अथवा पक्ष ने न तो अभी तक यह स्पष्ट किया है और न ही वह यह बताने को तैयार है कि नेहरु से लेकर मोदी तक भारत के जितने भी प्रधानमंत्रियों ने अपने-अपने समय में पड़ोसी देशों के साथ आपसी संबंधों को मजबूत बनाने के लिएजो भी प्रयास किये हैं वो उन्हें नहीं करने चाहिए थे।
यही नहीं किसी भी राजनीतिक विरोधी ने अभी तक यह भी खुलासा नहीं किया है कि जो प्रयास इस सम्बन्ध में अभी तक किये गए हैं वो क्यों नहीं किये जाने चाहिए थे और अगर ऐसे जो प्रयास पंडित नेहरु के समय से लेकर अब तक अलग- अलग समय में भारत के अलग- अलग प्रधान मंत्रियों ने किये हैं तो उनमें खामी क्या हैं? विरोधी ऐसा शायद इसलिए भी नहीं कर सके क्योंकि भारत के किसी भी प्रधान मंत्री ने पड़ोसी देशों के साथ बनाए रखने की गरज से जो भी कदम उठाये हैं उनके पीछे कहीं न कहीं भारत के ही हित भी शामिल थे।