
पलाश विश्वास
क्या भारत में कोरोना संक्रमण का तीसरा स्टेज शुरू हो गया है। क्या लॉक डाउन उठाने की तैयारी है या लॉक डाउन जारी रहेगा।क्या भारत सरकार और राज्य सरकारें कोरोना संक्रमण के बारे में तथ्य और आंकड़े छुपा रही है।क्या लॉक डाउन में फंसे घर से बाहर करोड़ो लोगों को घर वापसी के लिए दो तीन दिन की मोहलत देकर फिर लम्बे समय तक कोरोना कर्फ्यू जारी रहेगा?
इन सवालों और दूसरे जरूरी सवालों पर दिन आकर्षित करना चाहता हूं। सम्वाद भी इस संकट से निकलने के लिए जरूरी है। पोस्ट थोड़ा लम्बा हो जाये तो माफ करें। मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता के अलावा अंग्रेजी, बंगला और हिंदी में 1970 से लगातार लिखता रहा हूं। जनसत्ता के संपादकीय में 25 साल काम किया है। इसके अलावा जागरण, अमरउजाला, प्रभात खबर और आवाज के संपादकीय में कुल 40 साल तक काम किया है।
मेरे लिए मनुष्य और मनुष्यता सबसे ऊपर है। मैं जन्म से दलित शरणार्थी परिवार का बेटा हूं। मैं नास्तिक हूं लेकिन हर धर्म और हर व्यक्ति की आस्था का, उनकी संस्कृति, लोक रीति का सम्मान करता हूं।
मैं न राजनीतिक कार्यकर्ता हूं और न राजनेता। राजनीतिमें शामिल होने और सरकारी पद लेने के, यहां तक कि पुरस्कार और सम्मान लेने से भी मैं परहेज करता हूं। मैं तो अपने लिखे की, जो पचास साल में कम नहीं है, छपवाने की कोशिश नहीं करता।
यह स्पष्ट करना इसलिए जरूरी है कि इस देश में बहुसंख्य लोग अब भगवा हैं, वे जिस सरलता से नस्ल, जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम एक दूसरे के खिलाफ हो जाते हैं, उतनी ही आसानी से राजनीतिक एजेंडे में घृणा और हिंसा के आत्मध्वंस में निष्णात भी हो जाते हैं। उग्र धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद ने उन्हें इतना असहिष्णु बना दिया है कि वे वस्तुपरक ढंग से किसी मुद्दे या समस्या के हल के लिए सम्वाद के लिए तैयार नहीं होते। पढ़े लिखे लोग भी पढ़ते नहीं है और सिरे से लोकतंत्री हैं।
यह अभूतपूर्व दुस्समय है। विभिन्न धर्मग्रन्थों में जिस प्रलय या कयामत की चर्चा होती है, शायद उससे भी बुरा समय है। प्रधानमंत्री सच कहते हैं कि महायुद्धों के दौरान भी पूरी दुनिया इसतरह एकसाथ प्रभावित नहीं हुई थी। इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरी है प्रेम, भ्रातृत्व, शांति और संयम का। लेकिन सत्ता की राजनीति ने अस्मिताओं के नाम पर हमें इस तरह बांट दिया है कि हमें आपस में सिर्फ लड़ रहे हैं।घृणा और हिंसा की राजनीति बुद्धि, विवेक और अपने धार्मिक सांस्कृतिक मूल्यों के खिलाफ कर रहे है। कृपया इससे बाज आएं।
कल भारत में 24 घण्टे में 32 लोगों की मौत कोरोना से हुई है। जबकि बड़ी संख्या में डॉक्टर, नर्स और पुलिसकर्मी संक्रमित हैं। हालात इतने खराब हैं कि तमिलनाडु में 90 हजार लोग लॉक डाउन तोड़ने के लिए गिरफ्तार किए गए।
कोरोना संक्रमण की शुरुआत जनवरी में हुई और यह अप्रैल का महीना है। इस बीच विदेश से 15 लाख लोग आए। सर्फ तब्लीगी जमात के लोग नहीं हैं इतने सारे लोग। गनीमत है कि रोज़ी रोटी के लिए अब भी भारत में लोगों की माली हालत ऐसी नहीं है कि हवाई जहाज में बैठकर अमेरिका और यूरोप की तरह बड़ी संख्या में लोग विदेश जाएं। अब तक जांच कुल अस्सी हजार हुई हैं। यानी कोरोना संक्रमित 15 लाख विदेशियों में एक लाख की भी जांच नही हुई।
गनीमत है कि भारत में गांव और किसान अभी अपनी बदहाली के बावजूद जिंदा है और शहरीकरण, स्मार्ट सिटी, सेज और महानगरों का जाल बहुत छोटा है। गनीमत है कि महानगरों और बड़े शहरों की तरह धारावी जैसी बस्तियां गांवों में नहीं हैं।
फिर भी अंधाधुंध शहरीकरण और कृषि अर्थव्यवस्था की हत्या कर देश को अमेरिका बनाने की कोशिश में गांवों में रोज़ी रोटी खत्म होने से करोड़ों के तादाद में लोग महानगरों और बड़े शहरों की घनी गन्दी बस्तियों में रहते है। लॉक डाउन की वजह सर उनमें से 38 करोड़ लोगों की रोज़ी रोटी छीन गयी। यही लोग बचने के लिए गांव छोड़ने के वर्षों बाद फिर लॉक डाउन के अवरोधों को तोड़कर पैदल ही गांव लौटने लगे हैं उनमें से अनेक लोग भूख प्यास से बीच रास्ते ही मरने लगे है, आत्महत्या करने लगे हैं एयर दुर्घटनाओं का शिकार होने लगे हैं।
भारत विभाजन के दौरान सीमा पार से शरणार्थ आ रहे थे। कोरोना संकट में देश की एक चौथाई आबादी शरणार्थी बन गयी है।
अभी भारत में इटली, स्पेन, अमेरिका,फ्रांस,चीन, इंग्लैंड और ईरान जैसे हालात नहीं बने। फिर भी इतनी भयावह स्थिति है। कोरोना संक्रमण तीसरे चरण में गांवों तक फैला तो क्या हालत होगी, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। अभी देश में जो नफरत और हिंसा का माहौल बना है, उसके मद्देनज़र लॉकडाउन लम्बा चलने या बिना किसी योजना के लॉकडाउन दो तीन रोज़ के लिए उठाकर फिर लागू करने, खेती चौपट होने से अनाज का संकट पैदा होने, रोजी रोटी का संकट तेज़ होने और डॉलर से नत्थी शेयर बाजार की अर्थव्यवस्था खत्म होने और विदेशी पूंजी की आवक कम होने के बाद भूख और बेरोज़गारी के साथ घृणा और हिंसा की इस राजनीति से विभाजन से भी भयानक दंगे होने की आशंका है।
अभी जहां कोरोना नहीं फैला, वहां भी स्वाभाविक मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार में परिजन, रिश्ते नातेदार और पड़ोसी लाश को कंधा देने को तैयार नहीं हैं।1952 में गांव बसने के बाद से अबतक मेरे गांव में कभी पुलिस नहीं आयी। लॉकडाउन के बाद रोज़ आ रही है। जो लोग आपसी विवाद मिल बैठकर सुलझा लेते थे, कोरोना से आतंकित वे ही लोग एक दूसरे के खिलाफ लॉकडाउन की शिकायत लेकर पुलिस को बार बार शिकायत कर रहे हैं।
मातम के इस समय इन्हीं लोगों ने देशभर में खुशी की दीवाली मनाई। 9 मिनट के बदले देर रात तक इन्होंने ही पटाखे छोड़े। ऐसा माहौल पूरे देश में बन रहा है जो कोरोना से भयानक है। हर महामारी की तरह हम कोरोना को आखिरकार हरा देंगे। आर्थिक हालत देश दुनिया की जो हो 130 करोड़ जनता में कुछेक लाख से ज्यादा कमी नहीं होगी। बाकी लोग जिंदा रहेंगे। लेकिन इस घृणा, हिंसा और बंटवारे से हम कब मुक्त होंगे।
(पलाश विश्वास वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय तक जनसत्ता कोलकाता से जुड़े रहे। आज-कल उत्तराखंड में रह रहे हैं।)