शराब की दुकानें खुलीं, सरकारों को बस पैसे से मतलब है


जनता से पैसे उगाहने के बाद सरकार उस पैसे का बड़ा हिस्सा पूंजीपतियों के हवाले कर देती है। इतना ही नहीं जनता ने जहां-जहां पैसा निवेश करके रखा होता है, सरकार उस पैसे को भी पूंजीपतियों को दे देती है। पूंजीपति जनता के पैसे का एक हिस्सा दबा कर अपने पास रख लेते हैं। दूसरे खातों में साइफनऑफ कर देते हैं।



समरेन्द्र सिंह

हजारों साल बाद जो महानायक पैदा हुआ है उसने ठेके खुलवा दिए हैं। उसके इशारे पर विचारधारा की बंदिशें टूट गई हैं। जैसे सबको बस इसी इशारे का इंतजार हो। कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी प्रदेश सरकारों ने ठेके खोल दिए हैं। सबने ऐसा क्यों किया है, यह सभी समझ रहे हैं। सरकारों को पैसे की जरूरत है। पैसे कहां से आएंगे? जनता से ही आएंगे। हर बार ऐसा ही होता है। जब भी संकट आता है, सरकार जनता से पैसे लेती है। चाहे वो दान की शक्ल में हो या फिर टैक्स कलेक्शन के नाम पर हो।

जनता से पैसे उगाहने के बाद सरकार उस पैसे का बड़ा हिस्सा पूंजीपतियों के हवाले कर देती है। इतना ही नहीं जनता ने जहां-जहां पैसा निवेश करके रखा होता है, सरकार उस पैसे को भी पूंजीपतियों को दे देती है। पूंजीपति जनता के पैसे का एक हिस्सा दबा कर अपने पास रख लेते हैं। दूसरे खातों में साइफनऑफ कर देते हैं। बाकी पैसे काम धंधे में लगा देते हैं। फिर जनता के एक तबके को रोजगार के नाम पर थोड़े-थोड़े पैसे मिलने लगते हैं। सेठ उनके श्रम से मुनाफा कमाने लगते हैं और सरकार को उसका हिस्सा देने लगते हैं।

जनता को उसके श्रम की जो भी कीमत मिलती है, उसमें से वो एक हिस्सा आड़े वक्त के लिए बचाकर रखती है। मगर विडंबना देखिए जब भी संकट आता है, उसकी पूंजी घट जाती है। चाहे उसने वो पैसे जमीन में लगाए हों, प्रोपर्टी बाजार में लगाए हों या शेयर बाजार में लगाए हों। सबकुछ घट जाता है। उनके अलावा पीएफ के तौर पर या नकदी और गहने के तौर पर जो कुछ भी होता है, सरकार धीमे-धीमे उनसे वह भी बिकवा देती है। मतलब आम लोगों के जीवन में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आता। वो पहले से अधिक गुलाम हो जाते हैं।

इन आम लोगों का वो तबका जो सबसे निचली पायदान पर है, उसके लिए तो संकट और भी बड़ा है। उसके पास अपने श्रम के अलावा कुछ शेष नहीं होता। वो हर रोज मेहनत करके जो दो-चार सौ रुपये कमाता है, सरकार और शराब के व्यापारी उसकी मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा खींच लेते हैं। सोख लेते हैं। वो शराब पीता है। घर में मारपीट करता है। घर में मारपीट मध्य वर्ग के लोग भी करते हैं। और घर में कोई भी मारपीट करे, बच्चों के दूध और किताबों के पैसे की दारू पी जाए, दवा के पैसे की दारू पी जाए। सरकार को इससे जरा भी फर्क नहीं पड़ता है। उसे बस पूंजी चाहिए। वो चाहे कैसे भी आए।

गौर से देखिएगा तो लगेगा कि इस दौर की सरकारों ने अपना हाल “सड़क” फिल्म की “महारानी” और “अग्निपथ” फिल्म के “रऊफ लाला” जैसा बना लिया है। इन सरकारों का मकसद बस पैसे कमाना है, चाहे पैसे जनता को कोठे पर बिठा कर मिलें या फिर ठेके पर बिठा कर मिलें। और ऐसा करने के बाद भी ये निकम्मी और क्रूर सरकारें नैतिकता का ढोल पीट सकती हैं। ये बेशर्म और वहशी नेता नैतिकता का ढोल पीट सकते हैं। और हां, सरकार किसी की भी हो इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। गांधी का नाम लेने वाले और राम का नाम लेने वाले – इस मामले में दोनों एक हैं। पूरे नंगे।

(समरेन्द्र सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)