
इस महीने यानी सितम्बर 2020 की दो तारीखें एक अलग तरह का इतिहास बन गई हैं। मंगलवार 29 सितम्बर का दिन इतिहास में इसलिए याद रहेगा क्योंकि इस दिन देश की राजधानी दिल्ली के एक अस्पताल में सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई हाथरस की एक अबला ने जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करते हुए अंत में दम तोड़ दिया था। उत्तर प्रदेश के हाथरस में यह घिनौना अपराध 15 दिन पहले हुआ था और शर्मनाक बात यह है कि इस अपराध में समाज के कथित सवर्ण तबके के लोगों ने एक दलित अबला के साथ यह हरकत की थी।
बात केवल बलात्कार अथवा दुष्कर्म की नहीं बल्कि अपराध की पाशविक प्रवृत्ति की भी है। शारीरिक दुष्कर्म से पहले अपराधियों ने इस महिला की जीभ भी काट ली थी और उसकी रीढ़ की हड्डी भी तोड़ दी थी। हाल के वर्षों में महिलाओं के साथ दुष्कर्म की असंख्य घटनाएं हुई हैं लेकिन हाथरस की यह घटना आज से करीब सात साल पहले दिल्ली में हुई ऐसी ही एक घटना की याद ताजा कर देती है जिसमें निर्भया नामक महिला की इसी तरह सामूहिक बलात्कार के कुछ बाद अस्पताल में मौत हो गई थी।
दिल्ली की उस घटना में अमानुषिक और पाशविक मनोवृत्ति का शिकार हुई महिला का असली नाम निर्भया नहीं था यह नाम तो उसे उसकी पहचान उजागर न होने देने के लिए दिया गया था और निर्भया इस तरह के हादसों का शिकार होकर मौत का आलिंगन करने वाली महिलाओं की एक तरह से एक प्रतीक बन गया है।
पर हाथरस हादसे का शिकार होने वाली महिला के सन्दर्भ में तो ये प्रतीक भी हटा लिया गया है और पूरा देश इस हादसे का शिकार होने वाली महिला को नाम से जानता है। ऐसा शायद इसलिए भी हुआ है क्योंकि हाथरस की यह बालिका किसी सवर्ण परिवार से नहीं बल्कि दलित परिवार से ताल्लुक रखती है।
पत्रकारिता की नैतिकता का सम्मान करते हुए हम कमसे कम यह नाम उजागर नहीं करेंगे। इस घटना का एक दूसरा शर्मनाक पहलू यह भी है कि स्थानीय पुलिस प्रशासन ने आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के बजाय अंत तक यही लीपा-पोती करनी जारी रखी कि इस अबला के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ ही नहीं।
यही नहीं पुलिस प्रशासन की बेशर्मी और हठधर्मिता का एक नमूना यह भी है कि अस्पताल में निधन के बाद पुलिस जब इस बालिका के पार्थिव शरीर को लेकर उसके गांव गई तो परिजनों ने देर रात में उसका संस्कार न करने का अनुरोध किया जिसे प्रशासन ने नहीं माना और देर रात तीन बजे घरवालों की अनुपस्थिति में ही उसका अंतिम संस्कार भी कर दिया। प्रत्यक्षदर्शियों की माने तो ऐसा जुल्म तो अंग्रेजों ने भी नहीं किया था।
इस घटना के अगले दिन लखनऊ की एक अदालत ने 28 साल पुराने एक मामले में अंतिम फैसला सुनाते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंश के सभी तीन दर्जन आरोपियों को बरी कर दिय़ा। गौरतलब है कि दिसम्बर 1992 को कारसेवकों की अनियंत्रित भीड़ ने अयोध्या स्थित विवादास्पद बाबरी मस्जिद ढांचा गिरा दिया था। इस मौके पर भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद् के कई बड़े नेता भी मौजूद थे।
इनमें पूर्व केन्द्रीय मंत्री लालकृष्ण आडवानी, डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती के साथ ही विहिप के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया भजपा की तत्कालीन उपाध्यक्ष विजयराजे सिंधिया समेत अनेक महत्वपूर्ण लोगों के नाम शामिल हैं। इनमें कई लोग ऐसे भी हैं जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। इन सभी नेताओं पर बाबरी मस्जिद विध्वंश मामले में आरोप थे।
बुधवार 30 सितम्बर 2020 को लखनऊ की अदालत ने इन सभी नेताओं को विध्वंश के आरोप से बरी कर दिया। अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि इन सभी लोगों का बाबरी मस्जिद विध्वंश मामले में कोई हाथ नहीं था और यह हादसा असामाजिक तत्वों द्वारा किया गया था। नेताओं की कोई साजिश इसके पीछे नहीं थी। प्रसंगवश 29 और 30 सितम्बर 2020 की इन दोनों घटनाओं को लेकर किसी तरह का तुलनात्मक अध्ययन करने का मकसद नहीं है।
एक दिन के अंतर से होने वाली इन दोनों घटनाओं का जिक्र सिर्फ इसलिए किया गया है कि जिस राम के मंदिर को लेकर पूरे देश में इतनी चर्चा है उस राम के भक्त आज इस तथ्य को एकदम नकारने की मुद्रा में खड़े दिखाई देते हैं कि राम ने दलित शबरी के झूठे बेर खाकर सामाजिक सद्भाव का जो सन्देश युगों पहले दिया था वो आज सिरे से गायब है।
हैरानी की बात है कि हाथरस की लड़की विगत एक पखवाड़े से जिन्दगी और मौत के बीच संघर्ष कर रही थी लेकिन हमारा समाज शून्य में देख रहा था। पुलिस और प्रशासन की बेरुखी के साथ ही हमारा भक्त समाज भी इस पाशविक घटना को लेकर एक अजीब तरह का मौन साधे हुए था। प्रशासन के साथ ही समाज की यह असंवेदनशील मनःस्थिति वाकई दुखदाई नजर आती है। हैरानी तब होती है जब हमारे ही समाज का एक तबका पुलिस और प्रशासन की हां में हां मिलाते हुए पाशविकता का शिकार हुई अबला को ही प्रकारांतर से दोषी ठहराने में लग गया था।
इसी समाज के एक प्रतिनिधि के रूप में देश के टीवी मीडिया ने भी इसी एंगल से आग उगलनी शुरू कर दी थी। यह वही मीडिया है जो सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर तो खूब उछलता दिखाई देता रहा लेकिन हाथरस की गुड़िया के साथ हुए हादसे को उचित जगह देना उसने जरूरी नहीं समझा। हाथरस की गुड़िया जब तक जिन्दगी और मौत से लड़ती रही तब तक भी यह मीडिया मौन था और उसके बाद भी मौन ही रहा। मौत की खबर को भी उसकी पूर्णता में नहीं दिखाया गया।
इतना सब कुछ होने के बाद जब अगले दिन बाबरी मस्जिद मामले पर अदालत का अंतिम फैसला आया तो एकबारगी ऐसा भी लगा कि मीडिया को हाथरस की गुड़िया के मामले से पिंड छुड़ाने का एक मौका हाथ लग गया। सब कुछ भूल कर पूरा मीडिया इसी काम में लग गया कि बाबरी मस्जिद मामले से बड़ा और कोई मुद्दा है ही नहीं।