भारत में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का हिस्सा रहा है ‘किसान आंदोलन’


भारत में किसान आंदोलन साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का एक हिस्सा रहा है। इसलिए आज कारपोरेट के खिलाफ भी वह अपनी प्रतिबद्धता से लड़ रहा है।



’21वीं सदी में विचारधाराएं’ विषयांतर्गत ‘किसान आंदोलन का आंकलन’ पर विषय पर कई बुद्धजीवियों ने अपनी राय रखी। इस क्रम में अखिल भारतीय वन श्रमजीवी यूनियन के नेता एवं वामपंथी विचारक अशोक चौधरी ने अंतरराष्ट्रीय संदर्भों को रखते हुए भारत में किसान आंदोलन के इतिहास का विश्लेषण किया तथा बताया कि किसान आंदोलन साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का एक हिस्सा रहा है। इसलिए आज कारपोरेट के खिलाफ भी वह अपनी प्रतिबद्धता से लड़ रहा है।

प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस की सचिव तीस्ता सीतलवाड़ ने संवैधानिक एवं कानूनी पक्षों को रखते हुए किसान, किसानी एवं उनके आंदोलन की चर्चा की। उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान न तो कोई कागज का टुकड़ा है अथवा न ही कोई घटित घटनाओं से गठित एक पुस्तक।

वैश्विक तथा राजनीतिक स्तर पर भारतीय जनता ने जो आंदोलन एवं संघर्ष किए तथा जिससे उन्होंने अधिकार प्राप्त किए,वह वास्तव में उसी की अभिव्यक्ति है। भारत किसानों के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय चार्टर पर हस्ताक्षर करने वाला एक देश है। उन्हीं कानूनी प्रावधानों को आज आत्मसात करने की आवश्यकता है।

कृषि वैज्ञानिक तथा शहीद भगत सिंह क्रिएटिविटी सेंटर के निदेशक प्रो. जगमोहन सिंह का कहना था कि भारत का किसान आंदोलन हमारे साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़े जाने वाले संघर्ष की प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति है। इतिहास चक्र में ऐसे समय आते हैं जब नई परिस्थितियों के आलोक में न केवल परिस्थितियां समझी जानी चाहिए, अपितु उन पर अमल भी करना जरूरी है और इस बारे में चेतना को और ज्यादा गहरा करना आज की जरूरत है। उन्होंने कहा कि 1857 का हमारे सामने प्रत्यक्ष उदाहरण है, जब एक रोटी ने जन विद्रोह को जगाने का काम किया था।