
अभी ज्यादा समय नहीं बीता, कोई साल भर पहले ही पाकिस्तान में तुर्क लड़ाके एर्तुगल पर बना धारावाहिक पाकिस्तान में दिखाया गया। एर्तुगल पाकिस्तान का नया गाजी बन गया और तुर्की नया आदर्श। संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का उल्लेख करके तुर्की के तैयब अर्दोगान पाकिस्तान में बच्चे बच्चे के आदर्श बन गये। पाकिस्तान को पहली बार पता चला कि वो नाहक सऊदी अरब के पीछे पीछे चल रहे थे। तुर्की पहला ऐसा देश बन गया जिसने अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर का मुद्दा उठाया।
तत्काल तीन देश एक साथ आ गये, नया इस्लामिक ब्लॉक बनाने के लिए। पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया। मलेशिया भले ही एक देश के रूप में पाकिस्तान के साथ न हो लेकिन एक पठान बाप और मलय मां की संतान महातिर मोहम्मद पाकिस्तान के साथ खड़े हो गये। एक दो बैठकें भी कर लीं। लेकिन ये बैठकें महातिर को भारी पड़ी और उन्हें प्रधानमंत्री के पद से हटा दिया गया। इधर सऊदी के “दुश्मन देश” तुर्की के साथ गलबहियां करते देख सऊदी अरब ने पाकिस्तान का कॉलर पकड़ लिया। सऊदी का रूख देखकर पाकिस्तान ठंडा पड़ गया और नया इस्लामिक ब्लॉक बनाने का स्वप्न त्याग दिया।
लेकिन तुर्की का साथ तब भी गलबहियां वाला ही रहा। परंतु अब कुछ ऐसा हो गया है कि पाकिस्तान चारो खाने चित्त पड़ गया है। पाकिस्तान बुरी तरह से भ्रमित हो गया है कि तुर्की के ताजा रुख से उसे समझ नहीं आ रहा है कि वह क्या रास्ता अपनाये। असल में तुर्की ने अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की तैनाती का फैसला किया है। तुर्की के ये सैनिक काबुल के हामिद करजाई एयपोर्ट की सुरक्षा करेंगे। तुर्की ने ये फैसला सोमवार 14 जून को अमेरिकी राष्ट्रपति ज्यो बिडेन और तुर्क राष्ट्रपति तैयब एर्दोगॉन की मीटिंग के बाद लिया है। असल में अफगानिस्तान में अमेरिका की अगुवाई में नॉटो मेम्बर की सेनाएं तैनात थीं या फिर नॉटो मेम्बर सैन्य सहयोग कर रहे थे। तुर्की नाटो मेम्बर है। इसलिए उसने काबुल के हामिद करजाई एयरपोर्ट की सुरक्षा करने का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया है।
तुर्की से ऐसे निर्णय की उम्मीद पाकिस्तान को नहीं थी। पाकिस्तान चाहे जितना इंकार करे लेकिन सच यही है कि अफगानिस्तान में तालिबान को पाकिस्तान की आईएसआई नियंत्रित करती है। पाकिस्तान जानता है कि तालिबान इस निर्णय का स्वागत नहीं करेगें कि एक मुस्लिम देश के सिपाही तालिबान से काबुल एयरपोर्ट की सुरक्षा करेंगे। तालिबान ने इसी शुक्रवार को अपना बयान जारी करते हुए तुर्की के फैसले का विरोध किया है। तालिबान के प्रवक्ता जबीबुल्ला मुजाहिद ने वॉइस आफ अमेरिका से बात करते हुए कहा है कि “हम किसी भी विदेशी सैनिक का अफगानिस्तान की धरती पर विरोध करेंगे। चाहे वह अमेरिका हो या तुर्की।” तालिबान प्रवक्ता का कहना है कि हमने अपना विरोध तुर्की के सामने रख दिया है। तुर्की ने हमें भरोसा दिया है कि वो हमारे विरोध पर विचार करेंगे।
असल में तालिबान ने जिन इस्लामिक देशों के साथ अपने राजनयिक संबंध आज भी बना रखे हैं उनमें तुर्की भी है। लेकिन तुर्की का संबंध सिर्फ तालिबान से ही नहीं है। अफगानिस्तान के तालिबान विरोधी नेता अब्दुल रशीद दोस्तम भी तुर्की के करीबी लोगों में है। दोस्तम 2020 तक अफगानिस्तान के उपराष्ट्रपति रहे हैं और इस समय तुर्की में ही रह रहे हैं। दोस्तम उजबेक हैं और तालिबान के खिलाफ युद्ध में बढ चढकर हिस्सा ले चुके हैं। ऐसे में इतना तो तय है कि अमेरिका के बाहर जाने के बाद भी तुर्की अफगानिस्तान से बाहर नहीं जाना चाहता। वह तालिबान और अफगान के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास कर सकता है क्योंकि दोनों ही धड़े उसके संपर्क में भी हैं और प्रभाव में भी।
यही वह बात है जो पाकिस्तान को परेशान कर रही है। पाकिस्तान तालिबान से अपना रिश्ता समाप्त नहीं करना चाहता। तालिबान के जरिए वह आज भी अफगानिस्तान को अस्थिर रखना चाहता है। अफगानिस्तान के कई इलाकों पर आज भी तालिबान का कब्जा है और उन्हीं का शासन चलता है। ऐसे में पाकिस्तान को ये बिल्कुल अच्छा नहीं लगा है कि तुर्की इसमें मध्यस्थ बनकर प्रवेश करे। तुर्की के प्रवेश के बाद पाकिस्तान अफगानिस्तान में कमजोर पड़ेगा। इसलिए पाकिस्तान के विदेश मंत्री जल्द ही तुर्की से संपर्क करके इस बारे में बात करेंगे।
लेकिन इस ताजा घटनाक्रम से इतना तो हो गया कि तुर्की की चाल से पाकिस्तान कूचनीति की जमीन पर एक बार फिर चित्त हो गया। उसे तुर्की से ये आशा नहीं थी कि नॉटो सैनिकों के निकलने के बाद भी तुर्की अफगानिस्तान में अपनी सैन्य उपस्थिति बरकरार रखेगा। इसलिए पाकिस्तान के टीवी चैनलों पर इस समय तुर्की को जी भर गालियां दी जा रही है कि तुर्की ने उनके साथ धोखा किया है। पाकिस्तान को क्या पता कि किसी तुर्क के लिए अल हिन्दी मुसलमान उसी तरह से दोयम दर्जे की हैसियत रखते हैं जैसे सऊदी अरब के लिए। पाकिस्तान भले ही कभी सऊदी और कभी तुर्की के बीच हिंडोला झूलता हो लेकिन उन दोनों की नजर में वो अल हिन्दी मुसलमान ही है। जिसके लिए कोई भी अपना रणनीतिक लाभ भला क्यों छोड़ देगा?